क्या करूँ मीट तुम रूठते ही नहीं

 सोचता हूँ मनाऊं मैं मनुहार कर 
क्या करूँ  मीत तुम रूठते ही नहीं 
जानता हूँ मैं जाने अजाने सदा 
तोड़ता ही रहा साथ चलते कसम 


ध्यान मेरा लगा था धुनों की तरफ़
मैं बजाता रहा हो मगन बांसुरी
और देखा नहीं सामने है खुली
थरथराते अधर की मधुर पाँखुरी
मेरी अवहेलना को नकारे हुए
तुम जलाते रहे प्रीत की बस अगन


चाह है केसरों की  भरी क्यारियाँ
संदली गात में लहलहाती हुई
दृष्टि के एक क्वांरे  परस से रही
इस घड़ी के उतरने तलक़ अनछुई
आज उन्मादिता भर लूँ भुजपाश में
शांत कर लूँ तड़पती हुई सी तपन 


भावनाओं के उठते हुए ज्वार की
एक उद्भ्रांत होती हुई सी लहर
बह रही है नियंत्रण बिना हर घड़ी
भोर हो साँझ हो या कि हो दोपहर 
बस उसी के भँवर में रहे घूमते
रूठी मनुहार के सब अधूरे सपन 

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