जानता हूँ
शब्द मे क्षमता नहीं
अभिव्यक्त कर दें प्रीत की अनुभूति मेरी
भाव मन के
जब उठे अंगड़ाई लेकर
शब्द में ढलते हुए ही अर्थ बदले हैं अचानक
रूपरेखा जो बनी
वह तनिक आकार ले ले
पूर्व इसके ही बदल देता निदेशक आ कथानक
रह गई
फिर से अधूरी
भूमिकाएँ जो चुनी अपने लिए, अभिनीत मेरी
जब बनाए
आस के कोमल घरोंदे
कामनाओं के दिवास्वप्नों सुनहरी क्यारियों में
तब चढ़ा कर
त्योरियाँ अपनी कुपित
मौसम बदल देता उन्हें केवल करीली झाड़ियों में
थी लिए
आवंटनों की
ही प्रतीक्षा हर संवारती आस की आपूर्ति मेरी
पुल बनाए
सांत्वनाओं के सजीले बोल लेकर
ठोकरों वाली डगर को पार कर मंज़िल सजाने
खोखले आधार
टिक पाते कहाँ बहती हवाओं की बनाई नींव पर, तो
बढ रहे पहले कदम पर ही लगे हैं भूमि को शैय्या बनाने
घिर रहे
असमंजसों की
बंदिनी बन रह गई है भावनाओं की सकल अभिव्यक्ति मेरी
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