अधरों की फायल में

 शब्द जिसे सज कर ढलना था

किसी ग़ज़ल में या कि गीत म
होकर क़ैद रह गया अधरों की
फायल की लाल डोर में

बेचारी भावना ह्रदय के
 कितनी बार द्वार से लौटी
रहा निरंतर द्वारपाल देता
ही रहा समय की गोटी
बंधे रह गए अक्षर के सिक्के
आँचल के फटे छोर में

बेघर सारे अलंकार अब
मानचित्र की तानाशाही
व्यर्थ ही रही उपमाओं की
सुबह शाम की आवाजाही
लय के साथ धुनें भी खोई
दरवाज़े पर मचे शोर में

बेचारी लक्षणा व्यंजना
थकी गिड़गिड़ा करते विनती
दिन सप्ताह महीने बीते
एक एक कर के अनगिनती
लौटी मुँह लटकाए संध्या
आस उगी जो तनिक भोर में

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