एक भी मेघ आकाश में दूर तक
आज मरुथल में गिरने लगी बर्फ़ है
है विदित ये हमें, शेष अब भी समय
अपने पर्यावरण की सुरक्षा रहे
साक्ष्य इतिहास, संकल्प हम जो करें
तो बदल पाना कुछ भी असम्भव नहीं
कितने सावन गए पर घिरा ही नहीं
विश्व भर में ये मौसम बदलने लगा
किंतु आदत हमारी बदलती नहीं
एक पर्यावरण का मनाया दिवस
इक बरस में, सिरफ़ नाम के ही लिए
कितने नारे टंके हाथ के पट्ट जो
वृक्ष को काट कर के बनाए हुए
भाषणों में कहा, अब बचाओ हवा
और पानी, नई पीढ़ियों के लिए
किंतु बोझ किसी और पर डाल कर
हम उसी रीत पर अग्रसर हो लिए
जानते हैं सभी, दूसरे लोक को
आज की दृष्टि से देख पाना नहीं
फिर भी हर बार इसको नकारा किए
आदतें तो हमारी बदलती नहीं
आज मरुथल में गिरने लगी बर्फ़ है
और हिमखंड ध्रुव के पिघल बह रहे
अपने उपभोग पर कुछ। नियंत्रण करें
आँकड़े ये सभी ज्ञान के कह रहे
सिंधु में उठ रहे घोर तूफ़ान है
रोशनी का निरंतर बधेजा रहा
वृष्टि का आज अतिरेक होने लगा
कल जहां धूप को थे तरसते रहे
जान कर भी नज़र हम चुराते हुए
दूसरों से अपेक्षायें करते रहे
अपनी आहुति डाले बिना यज्ञ में
ज्योति का जाग पाना है सम्भव नहीं
हम शिकायत की लम्बी बही खोल कर
एक आक्षेप करते किसी और पर
अपनी आँखों के सम्मुख रखे आइने
हमने फेंके वहाँ से, सभी तोड़ कर
ख़ुद को थोथे दिलासे दिए जा रहे
कल यहाँ पर सभी ठीक हो जाएगा
ये न सोचा नई पीढ़ियों के लिए
जा रहे हैं विरासत में क्या छोड़ कर
है विदित ये हमें, शेष अब भी समय
अपने पर्यावरण की सुरक्षा रहे
साक्ष्य इतिहास, संकल्प हम जो करें
तो बदल पाना कुछ भी असम्भव नहीं
राकेश खंडेलवाल
१५ मई २०२२
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