चलने का निश्चय



न तो था पाथेय साथ में
न ही कहीं नीड़ भी था तय
एक पंथ. इक मन यायावर
और एक चलने का निश्चय 

कितनी बार उगे सम्बन्धों के बबूल इस चुनी राह में 
कितनी बार भरे सौगंधों के कीकर आ खुली बाँह में
कितनी बार जेठिया मरुथल की झंझा ने आकर घेरा
कितनी बार सूर्य उगने से पहले ही ढल गया सवेरा 

फिर भी पग-गति की धाराएँ
बहती थी निर्बंध निरंतर
और समय की समिधा पाकर
अनुशठान चलता हो निर्भय 

पथ पर आ घिरते सावन में भीग गई रंगीन हथेली 
उगती दूरी अंतरंग थी, बिरहा की हमराह सहेली
पतझड़ छाए बहारें आयी पर राहों  का रंग न बदला
विदा मिलन की बेलनों में साथ चला बस आंसू उजला

मोड़ों ने नित कपड़े बदले
किंतु आचरण रहा एक ही
बदला नहीं अंश भर भी वह
जो था संस्कृतियों का संचय 

पग पग मिली हताशाओं ने आहुतियाँ दी गति के तप में 
थकन साँझ की बनी ऊर्जा प्रेरित किए हर घड़ी पथ में 
नयनों ने पड़ाव का सपना एक बार भी नहीं सजाया
अनदेखी मंज़िल के आमंत्रण ने ही फिर फिर दुलराया 

मंज़िल रही सामने आकर
पथ की सहचर सिकताओं में 
हर पदचिह्न एक मंज़िल है
इसमें शेष न कोई संशय 








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