फिर भी तो भीख किनारों की

 


किश्ती हो चाहे काग़ज़ की  झंझाओं के फ़न फैले हों 
फिर भी तो भीख किनारों की करता  निश्चय स्वीकार नहीं 

अपनी क्षमता पर पूर्ण रूप
विश्वास हमें अपना दृढ़ है 
जो भी संकल्प लिया हमने 
वह अडिग, अटल औ अक्षय है 

पावस मावस की रातें हों, तम का विस्तार बढ़े पल पल 
फिर भी तो भीख उजालों की , यह मन करता स्वीकार नहीं 

टूटा हो सुधियों का दर्पण
किरचों किरचो में खंड खंड 
आगत परप्रश्न चिह्न  बैठे
हो बुझा बुझा सा मार्तंड 

एकांत विजन से टकरा कर हों रही लौटती प्रतिध्वनियाँ 
फिर भी तो भीख मिली सरगम, भर्ती मन में झंकार नहीं 

चंदन के दीप जलें पूजा
के पहले ही बुझ जाते हों
आराति के पहले सभी मंत्र
होंठो में चुप हो जाते हों

आहुति देने के पहले ही यज्ञाग्नि शांत हो बुझ जाए
अपना है स्वाभिमान करता भीखें वर की स्वीकार नहीं 

राकेश खंडेलवाल

1 comment:

Udan Tashtari said...

एकांत विजन से टकरा कर हों रही लौटती प्रतिध्वनियाँ
फिर भी तो भीख मिली सरगम, भर्ती मन में झंकार नहीं
-वाह

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