जीवन के अँधियारे पल में जिसने आशा किरण जगाई
मेरी सुधियों के आँगन में उसका कोई नाम नहीं है
पथ पर चलते हुए राह में कितनी बार ठोकरें खाई
और पकड़कर बाँहें मेरी। किसने कितनी बार सम्भाला
भटकी हुए पंथ को किसने कितनी सही दिशाएँ देकर
आँजे हुए सपन आँखों के जिसने है शिल्पित कर डाला
आज खोल कर इतिहासों के पन्ने देखे उलट पलट कर
कितनी धुंधली आकृतियाँ थी उनका कोई नाम नहीं है
यह महसूस हुआ है कितनी बार पकड़ता कोई ऊँगली
चक्रव्यूह से बाहर आने की जो क्रिया बदा देता है
बिना पाल मस्तूल लहर पर हिचकोले खाती नौका को
पतवारें बन कर के सहसा तट तक लाकर खे देता है
चेतन के, अवचेतन के सारे अध्याय पढ़े रह रह कर
ख़ालीपन ही मिला अंत में जिसका कोई नाम नहीं है
रह जाते असमर्थ समझने में जो भी जीवन का दर्शन
एक मुखौटा लगा, हमें बस वोही राह दिखाते आकर
जहां शून्य से घिरा शून्य है। और शेष भी सिर्फ़ शून्य है
वहाँ किस तरह उत्तर देना सम्भव गुत्थी को सुलझा कर
अवचेतन के तहख़ाने हैं अंतरिक्ष जैसे विस्तारित
परे कल्पना के जो कल्पित, उसका कोई नाम नहीं है
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