ढलती अलसाई संध्या में
नदिया के इस निर्जन तट पर
मेरी सुधियों के तार छेड़
किसकी बंसी की धुन गूंजी
यादों का रेतीला मरुथल
उड़ते हैं धूलों के ग़ुबार
इस ओर नहीं मुड़ती राहें
जिन पर पग रखते हैं कहार
पगचिह्न नहीं कोई दिखता
बनने से पहले मिट जाते
बस मौन कराहा करती है
जलता तन मन लेकर बयार
नयनों की बिखरी वीरानी
में किसके यह खाके उभरे
किसको मेरी अंगनाई में
चुपके से आने की सूझी
ये मौन तपस्वी से तरुवर
एकाग्र लगा कर खड़े ध्यान
बादल विहीन विस्तृत फैला
बस शून्य ओढ़ कर के वितान
पाखी के पर का फड़फड स्वर
है दूर कही जाकर खोया
सन्नाटे की धड़कन सहमी
हलचल का कोई नहीं भान
फिर भी आभासित होती है
परछाई कोई अनबूझी
मेरी सुधियों के तार छेड़
किसकी बंसी की धुन गूंजी
असमंजस में डूबा है मन
हर ओर ताकते हैं नयना
संध्या को करते हुए विदा
आतीं है थकी थकी रैना
है छीर चाँदनी की गठरी
सपनों का कोश लुटा पूरा
बैठी पलकों की चौखट पर
ढूँढे बस पल भर का चैना
घिर कर आती है अन अर्जित
तकिए के तले रखी पूँजी
मेरी सुधियों के तार छेद
किसकी बंसी की धुन गूंजी
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