आषाढ़ी मेघ घिरे आकर
बैसाख चढ़े अंगनाइ में
जो वह न सके थे वे आंसू
उमड़े सूखी अमराई में
आमों पर बौर, न दिखे पिकी
बस हवा चली मरुथल वाली
फुलवारी पर छाया पतझर
गुलमोहर की सूखी डाली
आँखों से दूर हुई निंदिया
सपने खो गए संशयों में
उत्तर सब उलझे हुए रहे
प्रश्नों के सिर्फ़ प्रत्ययों में
बुझती आसों में प्रश्न नहीं
बस सहमे सहमे उत्तर है
कुछ भय के अनचीन्हे साये
इन सबसे ज़्यादा बढ़ कर है
जो बहन सके थे वे आंसू
ढल रहे चित्र में यादों के
कुछ कर न पाने की कुंठा
हावी हो रही विषादों पे
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