एक झूठी ज़िंदगी के बोल

एक झूठी ज़िंदगी के बोल तिरते हैं हवा में
न्यूज़ चैनल हो कि  हों अख़बार की खबरें  यहाँ पर


राजनीतिक लाभ को अब दांव पर है जिंदागनी
और फिर फिर से यही दुहराई जाती है कहानी
एक ही किरदार प्यादों का लिखा है चौसरों पर
प्राण की आहुति चढ़ा रख लें सुरक्षित राजधानी

होड़ में डूबी हुई निष्ठाये रक्खी ताक पर अब
क्या पता किसको कसौटी सत्य की खोई कहाँ पर

कुर्सियों की चाह रखती आँख पर पट्टी चढ़ा कर
राजसिंहासन। चढ़े धृतराष्ट्र, हक़ अपना बता कर
राज्य की वल्गाएँ थामे, अनुभवी शातिर खिलाड़ी
शेष दरबारी मगन हैं बांसुरी अपनी बजा कर

और जन  गण   मन भटकता पर्वतों पर घाटियों में
ज़िंदगी के यक्ष प्रश्नो का मिले उत्तर जहां पर

जो चुने आशाओं ने, वे सब हुए अज्ञात वासी
दूर तक दिखती नहीं परछाईं भी कोई ज़रा भी
हाट में अब मोल साँसों का नहीं कौड़ी बराबर
भीर संध्या दोपहर  सब धुँध में लिपटी धुआँसी

एक झूठी ज़िंदगी का मोल क्या है, बोल क्या है
प्रश्न पर चर्चा सदी की, आज भी होती वहाँ पर

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