प्राण की वट वर्तिकाएँ दीप तो निशि दिन जलाए
वाटिका से पुष्प चुन कर साथ श्रद्धा के चढ़ाए
सर्व यामी मान कर आराधना करता रहा मैं
आज जाना वाक् हीना श्रव्य हीना मूर्तियाँ है
प्रार्थना में फिर निरर्थक गान गाकर क्या करूँगा
तुम कहे जाते रहे करुणानिधानी , तो बताओ
आर्त्त नादों से घिरे तुम, है कहाँ करुणा तुम्हारी
तुम बने थे कर्मयोगी और योगेश्वर कहाए
हो कहाँ तुम? आज कल योगी बने हैं बस मदारी
व्यर्थ लगती हैं सभी सम्बोधनों की पदवियाँ तब
मैं तुम्हारे नाम को देकर विशेषण क्या करूँगा
डिग रही है आस्था, बैसाखियों पर बोझ डाले
और नैतिकता समूची टैंक रही है खूँटियों पर
स्याह काले कैनवस पर दृष्टि को अपनी टिकाए
मानवीयता है प्रतीक्षित रंग आए कूँचियों पर
मरुथली झंझाओं ने घेरे हुए हैं द्वार गालियाँ
बध रहे इस शोर में मल्हार गाकर क्या करूँगा
जो थी शोणित में घुली निष्ठाएँ पहली धड़कनों से
टूटती हर साँस के पथ पर तिरोहित हो रही हैं
मान्यताओं की धरोहर जो विरासत में मिली थी
इस समय के मोड़ पर आ, मुट्ठियों से रिस रही हैं
जब कसौटी कह रही है पास के। विश्वास खोटे
मैं अधूरी आस के प्रासाद रच कर क्या करूँगा
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