सन्नाटे का शासन है

 


होठों पर ताले जड़ कर के बैठ रहो
केवल सुनो। स्वरों से कुछ भी नहीं कहो
आवाज़ों पर लगा हुआ प्रतिबंध यहाँ
इस नगरी में सन्नाटे का शासन है 

भोर यहां पर आती है लंगड़ा लंगड़ा 
दोपहरी आकर उबासियाँ लेती है 
संध्या का आना न आना, एक रहा 
आकर भी बस तान चदरिया सोती है

गालियां सड़कें पगडंडी, सब सूने है 
शाखाओं पर पत्ता एक नहीं हिलता 
दूर क्षितिज तक सिर्फ़ शून्य ही फ़ेला  है
गतिमयता का कोई चिह्न नहीं मिलता 

जलती धूप तलाशे कोई छाँव दिखे
सहमी हुई हवा जैसे अपराधी हो
यायावर के पगचिह्नो की दुर्लभता
जैसे इधर न आ पाने के आदी हो 

सारे चेहरे इक साँचे में ढले हुए
धुली पुंछी  जैसे स्लेट हो शब्द बिना
ख़ाली ख़ाली आँखें है अंतर तल तक
प्रश्नो की बुनियादों पर है प्रश्न चिना

दरबारी है टंगे चित्र दीवारों पर
राजा की नजरों में  हरियल सावन है
शब्द हो चुके बंदी सभी, किताबों में
इस नगरी पर सन्नाटे का शासन है 

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