आख़िर क्या है मेरा परिचय

मेरा परिचय 

आज अचानक गूँज उठी है प्राणों में ​सुधि ​ की शहनाई
पूछ रही इस गहन शून्य में, आख़िर क्या है मेरा परिचय

एक नाम है जो केवल आधार रहा है सम्बोधन का
चेहरा एक चढ़े है जिस पर कई मुखौटे बीते दिन के
अपनी नज़रों के प्रश्नो से रहा चुराता अपनी नज़रें
रहा देखता मुट्ठी में से रहे फिसलते पल छन छन के

धड़कन की खूँटी पर टाँकी  सासों की डोरी बट बट कर
लेकिन जीवन की चादर में क्या कुछ कर लाया है संचय

रहा देखता पीछे मुड़ कर शेष न था पगचिह्न कहीं भी
और राह की भटकन का भी कहीं कोई उल्लेख नहीं है
आज यहाँ इस दोराहे पर हुआ दिग्भ्रमित सोच रहा मैं
प्रतिध्वनि बन कर आने वाल अब कोई संदेश नहीं है

यायावर बन कर राहों की मापी हैं दिन रात दूरियाँ
फिर भी क्या मेरे गतिक्रम से राहों का विस्तार हुआ क्षय

एक कथा जिसको दोहराते आये कवि, विक्षिप्त दोनों ही
मुझको भी तो व्यसन रहा उस सरगम को ही स्वर देने का
सुनता कौन? महज है टिक टिक टंगी हुई दीवार घड़ी की
आज सोचता अर्थ मिला क्या यूं ही जीवन भर रोने का

जीवन भर व्यापार चला है  फिर भी संचित हुआ शून्य ही
यहाँ तिमिर का उजलाहट से होता रहा नित्य क्रय विक्रय

1 comment:

Udan Tashtari said...

एक कथा जिसको दोहराते आये कवि, विक्षिप्त दोनों ही
मुझको भी तो व्यसन रहा उस सरगम को ही स्वर देने का
सुनता कौन? महज है टिक टिक टंगी हुई दीवार घड़ी की
आज सोचता अर्थ मिला क्या यूं ही जीवन भर रोने का

जीवन भर व्यापार चला है फिर भी संचित हुआ शून्य ही
यहाँ तिमिर का उजलाहट से होता रहा नित्य क्रय विक्रय

-अहा! सम्पूर्ण जीवन दर्शन !!

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