गहन व्यथाओं का गंगाजल

थके दिवस की नजरें आ जब खड़कातीं सुधियों की साँकल
आंजुरि में तब भर जाता है गहन व्यथाओं का गंगाजल


रह रह दंश लगाया करतीं
नागफ़नी उग उग कर मन में
नयनसुधा बस साथ निभाया
करती है एकान्त विजन में


सम्बन्धों में बसी निकटता के बिम्बों की बढ़ती दूरी
में उलझा आभास और तो कुछ भी नहीं किसी का आँचल

प्रतिपल, अर्जित विश्वासों के
साथ आस्था डिगने लगती
थकी अपरिचित एक प्रतीक्षा
बैसाखी पर टिकने लगती


प्रतिबन्धों के भय से उपजी हुई रेख से आशंकित हो
एक बार फिर से रह जाती थिरके बिन पांवों की पायल


बीते कल के मधु स्वप्नों की
आ दर्पण में विभा दमकती
रजनी की झुकती परछाईं
उस पल बहुत ठठा कर हँसती


लगता है वह आईना बस छलना है झूठे बिम्बों का
और वेदना आँजा करती नयनों में सुधियों का काजल


लगता जा अटकी करील पर
साधों की चूनरिया धानी
छनी हुई शीशे से किरणें
करती हैं अपनी मनमानी


वातायन की पारदर्शित्ता भी कुछ नहीं दिखा पाती है
शून्य क्षितिज से टकरा लौटा करती हैं नजरें हो घायल

3 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर...क्या बात है..अनोखे बिम्ब!!

विनोद कुमार पांडेय said...

राकेश जी पिछले कुछ दिनों आपके कविताओं तक पहुँचने में कुछ देर हो जाती थी...अब फिर से दुरुस्त हो गया हूँ..अच्छे भाव और अच्छी रचना जितनी जल्दी पढ़ ली जाय उतना बढ़िया एक नये भाव का संचार होता है और कुछ ना कुछ सीखने को मिल जाती है.....बहुत सुंदर रचना..धन्यवाद स्वीकारें...

रंजना said...

विभोर मंत्रमुग्ध करती अप्रतिम रचना....

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