आज वीथियों में गुलशन की चहलकदमियां करते करते
मिला एक कागज़ का टुकड़ा जो लाई थी हवा उड़ाकर
मैंने झुक कर उसे उठाया और ध्यान से उसको देखा
अंकित थे कुछ धब्बे जैसे तितर बितर उसकी सीमा में
मुझे लगा है शब्द अनलिखे फिसल गए हैं किसी कलम से
काफी देर रहा मैं खोकर उनकी बिखराई गरिमा में
लगा मुझे है कविता वो इक जो कवि के अधरों पर उभरी
लेकिन पूरी होते होते, हवा उड़ा लाई अकुलाकर
दूजे पल पर लगा पाँखुरी हैं वे कुछ कलियों की झरकर
क्यारी में गिर पडी उठा कर जिन्हें पृष्ठ ने रखा सहेजा
उनमें बसे हुए कुछ सपने जो अंगड़ाई ले न सके हैं
यौवन की, नयनों ने जिनके लिए निमंत्रण निशि में भेजा
ये भी संभव वे हों बातें जो सहसा अधरों पर आई
लेकिन रही अप्रकाशित हो, वाणी मौन हुई सकुचाकर
समा गई थी एक बिंदु में जाने कितनी सम्भवताएं
और खोलती थी पल पल पर पार क्षितिज के वातायन को
कभी प्रेरणा बने सामने कभी तिलिस्मी भेद बन गए
वे सब धब्बे थे पुकारते अभिव्यक्ति के अभिवादन को
इस गुलशन की सुरभि अनूठी , बस इसको अनुभूत करू मै
और छोड़ दूँ मैं विवेचना, रखा स्वयं को बस समझाकार.
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