ड्यौढ़ी पर गुलाब खिलते हैं-

जब जब आई अँगनाई में
फ़ागुन की रंगीन पूर्णिमा
या दोपहरी में चैती की
मिला धूप का स्पर्श गुनगुना
सुधियों की दुल्हन की
आंखों में उग आये स्वप्न सिन्दूरी
विपदाओं की झंझाओं का
हुआ शोर उस वक्त अनसुना
जब से चित्र तुम्हारे उपजे दृष्टि क्षितिज के वातायन पर
तब ही से गुलाब के पौधे नित ड्यौढ़ी पर आ खिलते हैं

लहरें जब मद्दम से स्वर में
आकर के तट से बतियाई
झाड़ी में से जुगनू ने जब
देखी थी अपनी परछाईं
लगी फ़ड़फ़ड़ाने पा
​खी 
 के
पर की घर के पथ में सरगम
सुरमाये नभ के आँचल पर
छवि तब एक उभर कर आई
रँगे दिशाओं के पल्लों पर चित्र सभी वे रहे तुम्हारे
जहाँ दिवस औ निशा चार पल नित ही गले मिला करते हैं

शिशियारी फुलवारी करती
है हिमांत की जब अगवानी
रंग बिरंगे स्वप्न सजाने
लगती श्वेत राह वीरानी
नव जीवन पाने लगते हैं
सूखी शाखाओं पर पत्ते
आलावों पर नाचा करती
नई बाल सोनहली धानी
मौसम की मदभरी हवायें नाम तुम्हारा गाया करती
पंखुड़ियों पर पड़ी ओस से जब उजियारे कण मिलते हैं

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