वही पुराना घिसा पिटा दिन

वही पुराना घिसा पिटा दिन अपने हिस्से में आया
जो इतिहास बदलना चाहा गया वही फिर दोहराया

वही पेड़ की शाखा लटका मकड़ी के जाले सा दिन
वही पृष्ठ कोरे यादों के रह रह चुभते बन कर पिन
वही लुटा बादल की गठरी हार थका बैठा अम्बर
वही घड़ी के काँटों पर से फ़िसल फिसल  जाते पल छिन

कल की प्रतिलिपि बन कर फिर से आज पुनः सम्मुख आया
एक पुराना राग बेसुरा गया आज फिर दोहराया

बैठी रही नदी के तीरे भोर आचमन किये बिना
और देखती रही दुपहरी हाथों पर की धुली हिना
रहा ताकता संझवाती का दिया अधर की चुप्पी को
और रात गिनने में बीती स्वप्न न आये कितने दिन

लटका रहा निशा के नभ पर अंधियारे का ही साया
टूटे हुए साज पर आकर कोई राग न बज पाया

रखा रहा टेबिल पर टेलीफोन आज भी बजा नही
भूला भटका पत्र कोई भी मिला पूछते पता नहीं
दरवाजे की काल बैल थी नींद कुम्भकर्णी सोई
आंगन की सूखी फुलवारी में पत्ता तक हिला नहीं

अंक बदलते कैलेंडर ने चित्र एक ही दिखलाया
साँचे में था ढला हुआ दिन, अपने हिस्से में आया
 

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