मंजिले देती निमंत्रण

मंज़िले तो दे रही हैं बांह फैलाये निमंत्रण
पर गति ने साथ छोड़ा थक चुके बोझिल पगों का

हार कर बैठे हुए संकल्प सारे मन मसोसे
दृष्टि के पाटल दिखाते शून्य का आकार केवल
पंथ की विपदाओं की  संभावना दीवार बन कर

रोक लेती जब उठे हैं पांव फिर से कमर कस कर

बीतती जाती निरंतर पास में जो शेष घड़ियां
योग कोई कर न पाता रूठते जाते पलो का

लौट आई सांझ भटकी छोड़ उंगली रश्मियों की
पूछती है नीड का है द्वार आखित किस गली में
 मांगती अनुदान में मिल जायें कुछ विश्रांति के क्षण
जिस नगर में अ​लविदाये भी बिकी है पावली में

आस पगली हो तिरस्कृत लौट आती है पलट कर
नीर से परिचय न होसंबंध पर रीते घटों का 
 
मानचित्रों में सजे है रास्ते तो किसलयों से
और जितनी भी दिशाएं है सभी सुलझी हुई हैं
निश्चयों के गांव में पर नींद का साम्राज्य फैला
रोशनी के बिन्दुओ पर बेड़ियां जकड़ी हुई हैं


​आज , फिर से हार कर इतिहास का बंदी बना है 
भोर कल स्वागत करेगी नव दिवस के आगतों का ​

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