गीत नहीं अब लिखता हूँ मैं
समयाशिला पर जमी काई है
शब्द गीत के चुनते चुनते
अक्षर अक्षर
फिसला हूँ मैं
बुनियादों में दिन की जाकर
ठहर गए सूरज के घोड़े
सपन रात की देहलीजों पर
रुके रहे पलकें न छोड़े
ओस किरण के चुम्बन की
अभिलाषाओं के शीश महल के
खंड खंड होती आशा के
टुकड़ों को रह रह कर जोड़े
बही हवा की झालारियों में
सेमल के फाहों के जैसा
आवारा हो उड़ता हूँ मैं
पथ उद्देश्यहीन हो पथ में
घूमा करते हैं बन फिरकी
ढकी नीम की शाखाओं से
मिलती है नीड़ो की खिड़की
रि
क्त हुये पाथेय पात्र में
संचय की अक्षमता भर कर
विश्रांति के पल देते हैं
द्वारे पर से फिर फिर झिड़की
लुटी कल्पना यायावर की
फटी हुई गठरी में भरकर
देहरी देहरी फिरता हूँ मैं
संदेशो के रहे छूटते
उगली के पोरो से धागे
भावो की अनुभूति निरंतर
अनुमति अभिव्यक्ति को मांगे
लेकिन जुड़ते नही स्वरों से
मन की अंगड़ाई के फेरे
अंधकूप सी नीरावताएँ
छाईं
रहती सांझ सवेरे
आईने के पार खड़ी
परछाई का परिचय तलाशता
निर्निमेष बस तकता हूँ मैं
गीत नहीं अब लिख
ता हूँ मैं
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