21ST NOVEMBER 2022
इकतालीस वर्ष की सहचर
जो है मेरे जीवन प--थ की
उसके हाथों में वल्गाएँ
हैं मेरी साँसों के रथ की
प्रथम दिवस से उसने आकर
नित्य जगाई नई प्रेरणा
सहज किया है दूर अंधेरा
ज्योति पुंज की करी अर्चना
नभ के जो निस्सीम शून्य में
देती दिशा बनी ध्रुव तारा
धड़कन की तालों ने प्रतिपाल
केवल उसका नाम उचारा
उंगली थाम दिशा निर्देशित
करती रही भाग्य के ख़त की
उसके हाथों में वल्गाएँ
गईं मेरी साँसों के रथ की
मेरे जप तप और साधना
की उसने ही करी पूर्णता
आराधन में. शुचि पूजन में
साथ रही हर बार वन्दिता
उसके कौशल के स्पर्शों से
घर को मिली एक परिभाषा
वो सावन की घटा बनी है
तृषित हृदय जब होता प्यासा
उसने ही तो लिखी भूमिका
विगत भुला, मेरे आगत की
सौंपी उसको ही वल्गाएँ
अपनी साँसों के इस रथ की
उषा की अंगड़ाई के सैंग
अधरों पर जो स्मित आ खेले
उसको छू कर वीथि वाटिका
में लगते गंधों के मेले
उसके पदचापों की धुन सुन
कलियों का शृंगार निखरता
उसका आँचल जब भी लहरा
तब बहार को मिली सफलता
मिली तपस्याओं के वर में
वह उपलब्धि मेरी चाहत की
पार्थसारथी बन कर थामे
वल्गाएँ साँसों के रथ की
राकेश खहंडेलवाल
२१ नवम्बर
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