स्वाभाविक था चुप रह जाना
स्वर मी सरगम का स्वाभाविकता ही था
चुप हो कर रह जाना
मन में उठे भाव से जब शब्दों ने नाता
तोड़ लिया है
अनुभूति की अंगड़ाई ने
किया नहीं कोई समझौता
रचना की व्याकरण रही हो
कितने पथ में जाल बिछाए
छंदों के उन्मुक्त गगन में
उड़ते अभिव्यक्ति के पाखी
हो निर्बाध उड़ाने भरते
रहे पंख आपने फैलाए
लेकिन परवाज़ों का रुकनाभी
स्वाभाविकता ही तो था जब
पुरवाई के नूपुर ने झंकृत ही
होना छोड़दिया हो
चेतनता का गाती से नाता
जुड़ा सृष्टि की संरचना से
अंतरिक्ष का गहन शून्य हो
या हों चाँद सूरज तारे
जड़ में भी गाती . गाती भी गतिमाय
कुछ भी तो स्थिर नहीं रहा है
पथ में बढ़ते हुए कदम हों
या फिर खुले नीड़ के दवारे
लेकिन गाती का भी विलयन तो
स्वाभाविककि हो जाना ही था
जब धड़कन की तालों ने
साँसों से मुख ही मोड़ लिया हो
दिवस खींचता नित्य क्षितिज पर
रंग अरूणिमी नीले पीले
और व्योम के बादल करता
भूरे काले और मटमैले
जवाकुसुम, कचनारों चमेली
बेला चम्पा और केतकी
फिर गुलाब गेंदा कनेर के
रंग धनक की प्रत्यंचा पर
नाचा करते हुय रसीले
लेकिन रंगो का घुल जाना
स्वाभाविकता था श्याम विवर में
जब पूनम की रातों ने भी
राम का आँचल ओढ़ लिया है
राकेश खंडेलवाल
नवम्बर २०२२
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