फिर रही आज सूनी गली ये मेरी

 


फिर रही आज सूनी गली ये मेरी


फिर रही आज सूनी गली ये मेरी
कोई पदचाप उभरी नहीं साँझ में
पाखियों ने पलायन यहाँ से किए
शेष कुछ भी नहीं रह गया गाँव में

जितने पगचिह्न छूटे यहाँ राह में
आंधियाँ साथ अपने उड़ा ले गई
कोई लौटा नहीं, जो इधर से गया
जाते जाते ठिठक कर हवा कह गई
आज को कल में ढलना सुनिश्चहित रहा
क्रम ये रुक जाए सम्भव तनिक भी नहीं
ये समय की नदी, कल्प कितने हुए
अनवरत है चली, आज फिर बह गई 

ज़िंदगी एक गति का ही विस्तार है
कोई ठहराव बंधता नहीं पाँव में

तान छेड़े यहाँ पर कोई बांसुरी
राग उभरे किसी साज के तार से
तूलिका रँग रही हो अजंता कहीं
छैनियाँ शिल्प गढ़ती हों कोणार्क के
प्रेम की इक कथा ताजमहली बने 
प्रीत जमना का तट कर दे वृंदावनी 
सब विगत हो गए, आज कल जब बना
याद करते हैं बस पृष्ठ इतिहास के 

इस कथा को सुनाते हैं रामायणी
और वाचक सदा पीपली छाँव में 

दृष्टि का पूर्ण विस्तार है मरुथली
चित्र दिखते हैं जो, वे भी आभास हैं
दूरियाँ मध्य की नित्य बढ़ती अधिक
जो लगा था हमारे बहुत पास है
धूप की तीव्रता जब बढ़ी कुछ अधिक
अपनी परछाई भी लुप्त होती रही
बन अगरबत्तियों का धुआँ , उड़ गया
जिसको सामुझे थे दृढ़ एक विश्वास है 

उम्र की एक चौसर बिछी खेल को
हार निश्चित रही हर लगे दांव में 

​राकेश खंडेलवाल 
दिसंबर २०२२ ​

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