नहीं रहा उठ पाना सम्भव

 

शतारूप! जो कलम हाथ में मेरे दी थी इक दिन तुमने
आज उँगलियाँ अक्षम मेरी, नहीं रहा उठ पाना सम्भव

वही डगर है जिस पर पीछे मुड कर चलना रहा माना है
वही सुलगती प्यास एक दिन जो बोई बरसे सावन  ने
वही तुष्टि के मेघ रहे जो दूर सदा मन के मरुथल से
वही कसक है साँझ सकारे जो धड़का करती धड़कन में 

एक कहानी पीर भारी जो रही अधूरी लिखते लिखने
आज पुनः रह गई अधूरी, नहीं पूर्ण कर पाना सम्भव 

वातायन से दूर क्षितिज तक रोष बिखरता है पतझड़ का
रही वारिकाएँ बंजर हो, शब्दों के अंकुर न फूटे
अमर लगाएँ परिवर्तित हो विश बेलों में बदल चुकी है
नयनों की कोरों दे भी तो सपाटों के भी सताने रूठे

दस्तक देते छिली हथेली की धूमिल सारी रखाएँ
रेख भाग्य की भग्न हुई है, नहीं पुनः जुड़ पाना सम्भव 

अंतरिक्ष के सन्नाटे ही बरस रहे हैं श्याम व्योम से
घिरे शून्य में कोई गुंजन मिलता नहीं कंठ के स्वर का
शनै शनै अस्तित्व घुल रहा काल विवर के आकर्षण में 
दिशाहीन विस्तृत। सागर कोई  ज़ोर कहीं न दिखता

सिमट चुकी सारी सीमाये  आदि नाद के पूर्ण बिंदु में
बिना। समय के उद्भव के अब, स्वर का भी उठ पान सम्भव

राकेश खंडेलवाल
११ दिसम्बर २०२# 





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