कसक पीर की

 कसक पीर की 

कसक पीर की ढल ही जाती शब्दों में तो साँझ सकारे
लेकिन वाणी रुद्ध कंठ में, मुखरित उन्हें नहीं कर पाती 

सूनी नजर ताकती नभ को पंख फड़फड़ रह जाती है
परवाज़ें भरने में अक्षम, पाखी शब्दों के बेचारे
हर दिशि में हैं पाँव पसारे, बदली घोर निराशा वाली
मरी हुई आशा किस किस को कहो मदद के लिए पुकारे 

पुरवा की लहरों पर भेजे कितने मेघदूत संदेशे
लेकिन लौटी बिना पते के जितनी बार लिखी है पाती 

काग़ज़ कलम सामने रक्खे, इजिल पर है टंका कैनवस
रंग पट्टिका सोच रही है कब उँगलियाँ तूलिका पकड़े
कलम छुए हाथो की थिरकने, आवारा फिरते अक्षर को
कैसे अपने स्वर की सरगम के पिंजरे में लाकर जकड़े

लेकिन वीणा की खूँटी से फिसले हुए तार हैं सब ही 
कोशिश करते थकी तान, पर झंकृत नहीं तनिक हो पाती 

कहने को इतिहास वृहद् है सुधि के संदूकों में बंदी
लगे हुए स्वर की सरगम पर अनजाने तिलिस्म के घेरे
कुंजी आगत के पृष्ठों के किस पन्ने पर छुपी हुई है
इस रहस्य पर पर्दा डाले लगे हुए हैं  तम  के डेरे 

लेकिन मन की अनुभूति तो  छ्लका करती निशा भोर में
शब्दों में ही वर्णित होती, वाणी  व्यक्त नहीं कर पाती

राकेश खंडेलवाल
दिसंबर २०२२ 


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