बरखा की बूँदें सावन में

बरखा की बूँदें सावन में


ज्यों हाथों में खिंची लकीरें,मीत से तुम मेरे मन में
अंतरिक्ष में बसे सितारे बरखा की बूँदें सावन में

अधरों का हर शब्द तुम्हारे चित्रों से होता उत्प्रेरित
नयनों का हर द्रश्य तुम्हारे प्रतिबिम्बों  से होता सज्जित
हर अनुभूति  निमिष  पर केवल  रहा नियंत्रण प्रिये  तुम्हारा
पांच इन्द्रियों का सब गतिक्रम एक तुम्हीं से है निर्धारित

सांसों की हर इक लहरी पर एक तुम्हारी ही है छाया
मीत  तुम्हारी ही स्वर लहरी जुडी हुई मेरी धड़कन में

प्राची  उठाती  अँगड़ाई  ले,​ ​या   थक  बैठी  हुई   प्रतीची
उगी प्यास हो आषाढ़ों की  या तृष्णा मेघों की सींची
जुड़ा हुआ तुम ही से सब कुछ जो गति​मान ​शिराओं मे है
अनुभूति की दस्तक हो या सुधी ने कोई आकृति खींची

शतारूपे!  मेरा मन दर्पण  मुझको बिम्ब दिखात।वे ही
जिसकी आभा बिखर रही है रंगों के सुरभित्त ​ कानन ​में

नयनों की सीपी में तुम ही बसी हुई हो बन कर मोतो
साँसों के गलियारों में तुम आकर चंदन गंध समोती
दिन की दहलीज़ों पर रचती साँझ सकारे नई अल्पना
और हृदय के  हर कोने को अनुरागी से रही भिगोती

कलसाधिके ! रोम रोम में थिरकने एक थरथराती है
जिसे सदा छेड़ा करती है मीत तुम्हारे पग की पायल

राकेश खंडेलवाल
दिसम्बर २०२२

No comments:

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...