कब सोचा था कलम शब्द अब लिखने से इंक़ार करेगी
गीतों के गलियारों में भी कासा ख़ाली रह जाएगाकिसका रहा नियंत्रण कब क्या सोचे हुए नियति हैं अपनी
अपनी इच्छाओं का कोई मोल नहीं है उसके आगे
हम निर्जीव काठ के पुतले चलते हैं उसके इंगित पर
एक उसी के हाथ नियंत्रित करते हैं हर गाती के धागे
जो हैं शहसवार नायक इस वर्तमान के रंगमंच पर
पर्दा गिरते ही वह भी बस इक कोने में रह जाएगा
जीवन की हर नई भोर लाती है नाज़ी चुनौती हर दिन
जिसकी प्रत्याशाओं का कोई अनुमान नहीं हो पाता
दिन ने अपने पूरे पथ पर जिस सरग़म पर साज संवारे
किरणों के संगीत बिखरते से कुछ मेल नहीं बन पाता
बांध लिए थे पूरबाइ ने घुँघरू तो अपने पाँवों मे
लेकिन उसको पता कहाँ था कोई बोल नहीं पाएगा
दिवस निशा की चहार पर जो रखती गोटी काली गोरी
कभी हिलाई करती ऊँगली, कभी चुरा लेती काजल को
उसकी अपनी मर्ज़ी किस रस्ते पर ले कर चले जाह्नवी
और कौन सा घाट तरसता रहे बूँद भर गंगाजल को
खड़े बीच में धाराओं के, तृष्णा लिए हुए डगरों पर
किसे पता था मरुथालियाँ ये मन फिर प्यासा रह जाएगा
राकेश खंडेलवाल
१४ नवम्बर २०२२
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