किसे पता कब शब्द छोड़े दें-

 आज १०००वीं प्रस्तुति


रविवार की पतझरी भोर आकाश के बादली झरोखे से ज़रा सा परदा हटा कर झांकती इक्का दुक्का सुनहरी किरणने याद दिलाया कि  अगले रविवार को समय परिवर्तन का दिन है और अमरीका के पूर्वी तट पर EDT से EST समय पर आ जाएँगे और वह दिन ´ गीत कलश से छलकने वाली एक हमार एकवीं प्रस्तुति का दिन होगा।

तो अर्थ ये हुआ कि  अगस्त २००५ से आरम्भ हुए अपने ब्लाग * गीत कलश* पर २०२२ की दीवाली के दिन की पोस्ट ९९९वीं थी और आज की यह प्रस्तुति १००० वीं पोस्ट है।

गीत यात्रा का जो क्रम १०६३-६३ से शुरू होकर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं की यात्रा करते हुए १९८३ का संकलन भारत में ही छूट गया और १९८३ से अमरीका प्रवास के आरम्भिक दिनों मेम अपरिचित मूल के लोगों कीं सीमित संख्या के कारण कुछ वर्षों के लिए कलम ने अवकाश ले लिया। कालांतर में धीरे धीरे कई हिंदी प्रेमियों से सम्पर्क हुआ जिनसेंग घनश्याम गुप्ता( फ़िलाडेलफ़िया ): सुरेंद्रनाथ तिवारी और अनूप भार्गव के साथ मधु माहेश्वरी और गुलशन मधुर सम्मिलित रहे और कलम फिर गतिमान हो गई।

२००३ में अनूप भार्गव ने कम्प्यूटर पर हिंदी लेखन का ज्ञान दिया और २००५ से यह ब्लाग आरम्भ हुआ।

इस ब्लाग पर नियमित लिखते हुए इस १०००वीं प्रस्तुति का श्रेय इन सभी के साथ गीत विधा के प्रेमियों का है जिन्होंने मुझे निरंतर प्रोत्साहित करते रहते

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किसे पता कब शब्द छोड़ दें
जीवन के किस पग पर ऊँगली
इसीलिए ही जोड़ रहा हूँ
एक और अब बंद गीत मैं

रिक्त पड़े अनुभूति कलश सब
करुणा पीकर रिसते रिसते
भूलभुलैया में संधियों की
उलझ रह गए सारे रिश्ते
भावों के पनघाट के पथ पर
बिखरा हुआ भयानक सूना
डेहरी पर जाम रहा बरसता
टपका नभ से कोहरा दूना

किसे पता कब  नई व्याकरण
भाषा को परिवर्तित कर दे
इसीलिए मैं जोड़ रहा हूँ
एक और अब छंद गीत में

सम्बन्धों के वटवृक्षों की
जड़ें खोखली आख़िर निकली
एक निमिष में बही हवा के
साथ उड़ गए बनकर र्तितली
बिन आधार उगी शाखा पर
कब फूलों का हुआ अंकुरण
समय दिखता सम्मुख लाकर
अंतर्मन का सही आचरण

किसे पता कल करवट लेकर
फिर से अर्थ ‘स्वयं’ का बदले
इसीलिए मैं जोड़ रहा हूँ
एक नया अनुबंध गीत में

बोई हमने जहां मंजरी
वहाँ नागफनियाँ उग आइ
क्यारी जिसमें अंकुर रोपे
वो मरुथल की थी परछाई
फिसल गई सराहां तारों से
जब कर से सारनी छूटी
पुष्प वाटिका की गलियों से
अब तो पुरवाई भी रूठी

किसे पता कल प्रेम सुमन की
कलियों से भँवरे कतराएँ
इसीलिए अब घोल रहा हूँ
और मधुर मकरंद गीत में






1 comment:

Amit Jain said...

अद्भुत, सर्वकालिक रचना
रचनाकार को आभार

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