प्राण के दीपक ,में जलता रहता हूँ ​

 प्राण के दीपक ,में जलता रहता  हूँ ​

जीवन के पथ पर जब चलते चलते बढ़ा अकेलापन कुछ 
सोचा लौट चलें पीछे जो मोड़ रहे जाने पहचने 
लेकिन संभव यह कैसे हो सकता था फिर याद आ गया 
पीछे मुड़ना यहां मना है, ये तिलिस्म हैं बड़े पुराने 

मैं फिर आगे के अनजाने पथ पर ही चलता रहता हूँ 
साँसों का भर स्नेह प्राण के दीपक में जलता रहता हूँ 

ये तो  विदित रहा है मुझको, राहैं होती सदा अपरिचित
और दिशाएँ बतलाने को सदा नहीं कोई संग होता
नियति तय हुई चलते जाना बिना किन्ही विश्रांति पलों के
जो भी मिले पंथ में, उससे करना ही होगा समझौता

ये इक बात भूल न जाऊँ, अब भी दुहराया जरता हूँ 
साँसों का भर स्नेह प्राण के दीपक  में जलता रहता हूँ 

समय चक्र कब मुड़ता पीछे, प्रावधान आगे का ही है
कब पीछे छूटें पल सुधियों से बाहर  आकर जीवंत हो सके
सम्भव नहीं रहा दुहराना अब हो चुके शिथिल काँचों पर
यात्रा के आरम्भ मिली जो असफलताएँ कभी ढो  सके

अपनी इस अशक्ताता का मैं बस आकलन किया करता हूँ
साँसों का भर स्नेह प्राण के दीपक में जलता रहता हूँ 

गति का चेतन तो अंकित है कदम कदम के अविरल क्रम में
जो भी थमा, तत्व से वंचित होकर के अवशेष रह गया
मन्वंतर से अर्जित हुए ज्ञान की सारी वाचिक श्रुतियाँ 
कोई ज्ञानी, कोई पाखी, बस समझाते हुए कह गया

यही बात मैं वर्तमान में खुद को समझाया  करता हूँ 
साँसों का भर स्नेह प्राण के दीपक में जलता दबाता हूँ 

राकेश खंडेलवाल 
२४ अक्तूबर २०२२ 


No comments:

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...