सब कुछ अपरिचित हो गया है

 

नवरात्रि और दशहरा के पश्चात त्योहारों का मौसम आरम्भ हो गया है लेकिन वर्षों के व्यवधान के पश्चात जिस उमंग और उमंग की आशा की अपेक्षा थी उसका अभाव एक अजब ही स्थिति में मन को डाले हुए है। इसी सोच में डूबे हुए कुछ शब्द:-

सब कच अपरिचित हो गया है 


बढ़ रही है आ शिराओं में अजब बेचैनियाँ कुछ
यूँ लगे जैसे यहाँ सब कुछ अपरिचित हो गया है 

राह ये जिस पर कि हमने उम्र  है आधि गुज़ारी 
वक्ष पर जिसने पगों के चिह्न के गलहार पहने
मोड़ ने विश्रांति के पल जो बनाया माँग टीका 
मौन के. हर्षित पलों के कंठ पर शृंगार पहने

आज उगती भोर में बदले लगे सब चित्र सहसा 
यूँ लगे पूरी डगर यह अब अकल्पित हो गया है 

राह पर मिलते हुए यायावरों से पग मिला कर 
प्रीत की अनुभूतियों की डोर से सम्बंध जोड़े
भोर की नीरांजलि से साथ का विश्वास बांधा 
आस्था की ये नया संकल्प अब न साथ छोड़े

उम्र के इस मोड़ पर ढलती हुई अब शाम में क्यों
ये लगे अनुबंध का दीपक विसर्जित हो गया है 

पंथ जिसने हर दिवस पाथेय था कर में थमाया 
पंथ जिसने दिन ढले आ नीड़ में दीपक जलाए
पंथ जिसने हर कदम को सौंप दी गति की दिशाएँ
पंथ जिसने अजनबीपन में नए परिचय बनाए 

आज संशय से घिरे बढ़ते कुहासों में लगा है
पंथ वह सहसा बदल कर के विरूपित हो गया है 

राकेश खंडेलवाल 
अक्तूबर २०२२

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