शिल्प में ढल नहीं सकेंगे

  

 

 

शिल्प में ढल नहीं सकेंगे

जो स्वप्न नयनों से आये बाहर, उन्हें निरख कर उदास मन ये

लगा सजाने पुन: वे सपने, जो शिल्प में ढल नहीं सकेंगे

 

जो मन में सुलगी रही अपेक्षा, तदानुरुपण फ़ले ढले वह

यही सदा सींचती हैं साधें, प्रथम किरण से ले आखिरी तक

नहीं था स्वीकार कामना से विलग तनिक सा भी कोई विचलन

न ऊर्ध्व, नीचे, न आगे पीछे  नही हो बायें से दाहिनी तक

 

हुआ जो शिल्पित नयन से बाहर नहीं था स्वीकार वो ह्रदय को

रहे वेही बीज रोपते हम  जो ज्ञात था फ़ल नहीं सकेंगे

 

ये जानते थे बिना समर्पित हुये न समझौता हो सकेगा

मग्र जो निश्चय किये थे मन ने, वे रोध बन कर खड़े रहे थे

लगाती आवाज़ थी हमको प्रतिपल गली के नुक्कड़ पर से बहारें

मगर हठी हम दहलीज से ही पग बाँध अपने खड़े रहे थे

 

जो सावनी बाढ़ में गिर बहे थे, उन्हीं दर्ख्तों की शाख चुन लीं

ये जानकर भी कि गीले टुकड़े, आलाव में जल नहीं सकेंगे

 

पता नहीं क्यों भुलावे हमने, छलावे हमने लपेटे पल पल

ये ज्ञात था हमको भेस गहरा, मरीचिकायें बनी हुई हैं

मगर ये दिल तो बहल रहा है, सजाई थी  सोच ये गालिबाना

बसेरा हमने वहीं बनाया, जहाँ सदा रहजनी हुई है

 

रही हैं निष्ठा जुड़ी हमारी, चमक धमक की बनावटों से

भले ही अनुमान था खोटे सिक्के, बाज़ार में चल नहीं सकेंगे

 

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राकेश खंडेलवाल 

अक्टूबर ​२०२२


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