कुमकूमे यूँ जल उठेंगे

 भाई पंकज सुबीर २००७ से सुबीर संवाद सेवा पर हर त्योहार पर तराशी मुशायरे का आयोजन करते हैं और यह क्रम निरंतर जारी है।

इस बार दिवाली के अवसर पर उन्होंने तराशी दी-

कुमकूमे यूँ जल उठेंगे नूर के त्योहार में

अब चूँकि ग़ज़ल के क्षेत्र में अपना कोई दखिल नहीं है तो कुछ शब्द संयोजित करने का प्रयास किया है जो आपके समक्ष प्रस्तुत है ;-

कुमकुमे यूं उठेंगे नूर के त्यौहार में 

हट गई चादर तिमिर की जो कुहासा बन घिरी थी
 यूं लगा था डूब जाएगा सभी   अंधियार में 
एक आशा की किरण ने सूर्य नूतन बो दिया है 
झिलमिलाने लग गए सब इस नए उजियार में 
सज रही हैं महाफ़िलें फिर  साज की धुन ले यहां 
रंग भी आने लगा है इश्किया अशआर में 
आओ हम तुम मुस्कुरा कर बाँट लें खुशियां पुनः 
कुमकुमे फिर जल उठेंगे नूर के त्यौहार में 

अब भुला बीते दिवस को सूर्य को आवाज़ दो तुम 
तो न उनको भूलना जो जा चुके लेकर विड़दै 
वे बुझे उन बातोयों से, प्राण का उत्सर्ग करके 
ये नई आशाएं लाकर ज़िन्दगी में हैं उगाई 
यज्ञ में बन आहुति इक शक्ति को जिनने संवारा
नाम लिख, विज्ञान के फिर एक आविष्कारमें 
जुलती के ये पुंज नभ में हर घड़ी रोशन रहेंगे
कुमकूमे यूँ जल उठेंगे नूर के त्योहार में 

आओ चंदन दीप लेकर थाल पूजा के सजाएँ
ला खिलौने खाँड़ के कुछ खील भर लें हथरियों में
द्वार, देहरी आंगना में पूर लें रांगोलियाँ नव
ला रखें कलदार, जो हैं बंद रक्खे गठरियों में 
खोल कर दिल साथ ले लें अब सभी सम्बन्धियों को 
एक होकर फिर जुटें सब एक ही परिवार में 
तो उतर कर देवता भी भूमि पर आ जाएंगे 
कुमकुमे यूं जल उठेंगे नूर के त्यौहार में. 

राकेश खंडेलवाल 



फिर दुशासन ने हरा है चीर भोली द्रोपदी का
और पूटोन है  रहा हिटलर सदी इक्कीसवीं का
बढ़ रही है नारियों पर बंदिशें ईरान में यूँ
कह ख़ुदा का हुक्म है लिक्ख हुआ कुराआन में ज्यूँ
उठ रही संकीर्णता की लहर अमरीकी गली में
भूल कर डालर सिमटते जा रहे इक पावली में
प्रश्न करता मन, खबर पढ़ आज के अख़बार में
कुनकुने कैसे जलेंगे नूर के त्योहार में

धैर्य तज कर हो रहा वातावरण पूरा प्रकोपित
पंचवटियों  से जहां थे वन रहे होकर सुशोभित
आज की इस सभ्यता के नाम ने सब ही मिटाए
भूमि, जल आकाश के सब संतुलन खुद ही हटाए 
क़हर ढाते है समंदर में उठे तूफ़ान नित ही
खा रहे ठोकर बदलते आचरण  ना किंतु फिर भी
क्रांति आएगी कभी जब आपके व्यवहार में
कुमकमे तब ही जलेंगे नूर के त्योहार में 

द्वार पर जब एक दीपक तुम जला कर के धरो
इक किरण उकारेन के नाम की शामिल करो
इक किरण पर नाम हो महसा अमीनो का लिखा
इक लिरन  जिसने सदा सम्मान नारी का करा
ज्योति जागेगी यहाँ वैचारिकी आचार में 
और गति आ जाएगी जब मानवी सत्कार में
तब सही होगी दिवाली पूर्ण इस संसार में
कुमकुमे यूँ जल उठेंगे नूर के त्योहार में

राकेश खंडेलवाल






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