साथ सुइयों के घड़ी की बढ़ रही हैं उलझनें
भोर से संध्या तलक के प्रहर सारे अन मने
बाढ़ में उफनी नदी सी है उच्छ्रूंखल ज़िंदगी
आफ़तें सी काटती है साँस के संग धड़कनें
एक चेहरा आइने से प्रश्न लेकर झाँकता है
शब्द में अनुभूतियों का दर्द कुछ हो, माँगता है
हैं अपरिचित राह जिस पर पाँव चलते
हैअगोचर वह, की जिस पर हम मचलते
चाहिए क्या यह हमें निश्चय नहीं है
किंतु असमंजस लिए नित हाथ मलते
लक्ष्यहीना पंथ केवल वृत्त में ही घूमता है
यह सचाई है जिसे अपना ह्रदय भी जानता है
वक्त है गतिमान, पल रुकता नहीं है
उम्र का पथ अग्रसर, मुड़ता नहीं है
क़ैद है दायित्व में जो प्राण पाखी
फड़फड़ाता पंख पर उड़ता नहीं है
कुछ नहीं अपना, कोई है और जो पूनी सम्भाले
उँगलियों की थिरकनीं से, सूत निशिदिन कातता है
जो सृजन का हो समय, हड़ताल पर है
साज का संगीत बस चौताल पर है
यज्ञ की सम्पूर्ण आहुति, हो या न हो
प्रश्न का उत्तर टिका, वेताल पर है
कश्मकश के जाल में उलझा थका दिन साँझ ढलते
रिक्त अपनी झोलियों को खूँटियों पर टाँकता है
No comments:
Post a Comment