थमे हवा के झोंके छत के कमरे में बैठे
लहरें छुपीं रहीं जाकर पर्वत के कोटर में
तारों पर झंकार नींद से होड़ लगा सोई
सोच रहा हूँ बैठूं थोड़ा अब चुप होकर मैं
पीपल बरगद चन्दन पानी
लहराते निर्झर
यज्ञभूमि वेदी आहुतियाँ
संकल्पों के स्वर
निष्ठा और आस्था संस्कृतियों
की गाथाएँ
मन्त्रों मेम गुन्थित जीवन की
सब परिभाषाएं
लिखते लिखते बिखर गई है चादर पर स्याही
जिसे उठा कर सोच रहा हूँ,रख दूं धोकर मैं
सपनों के अनुबन्ध और
सौगन्धें अयनों की
रतनारे,कजरारे,मदमय
गाथा नयनों की
गठबन्धन,सिन्दूर,मुद्रिका
पैंजनिया कंगन
चौथ,पंचमी,पूनम,ग्यारस
अविरल आयोजन
दोहराते बीते जीवन की निधि का रीतापन
सोच रहा हूँ चलूँ और अब कितना ढोकर मैं
खुले अधर के मध्य रह गईं
बिना कहे बातें
मौसम साथ न जिनको लाया
वे सन सौगातें
क्यारी,फूल,पत्तियाँ,काँटे
भंवरों का गुंजन
अलगोजे की तान-अधूरी
पायल की रुनझन
सब सहेज लेता अनचाहे यायावरी समय
सोच रहा क्या पाऊंगा,फ़िर से यह बोकर मैं
3 comments:
शब्दों का सौन्दर्यपूर्ण श्रंगार, पढ़कर मन्त्रमुग्ध हो गया मन।
क्या बात है....आनन्द आ गया...
लिखते लिखते बिखर गई है चादर पर स्याही
जिसे उठा कर सोच रहा हूँ,रख दूं धोकर मैं...
Bahut sundar varnan bahut2 badhai kafi samya baad ham dono ka ek dusre ke blog par aana hua...tipanni ke liye aabhar..
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