ज्यों ज्यों होती जाती शाम

मन की कस्तूरी भटकाती तृष्णा को गति में आभिराम

सिसका करती किन्तु अपेक्षा ज्यों ज्यों  होती जाती शाम

चातक सी अभिलाषा हर दिन फैलाती है अपने डैने 
सावन के मेघों के जैसी छा जाती है दॄष्टि  गगन पर 
सहज नकारा करती अपने क्षमताओं की सीमित मुट्ठी 
दिवास्वप्न बुनती है, रखती पाँव एक भी  तो न भू पर 

इक मरीचिका में उलझे ही पूरा दिन तो कट जाता है 
मन मसोस अभिलाषा  रहती ज्यों ज्यों होती जाती शाम 

सम्बन्धो की छार छार चूनर के टुकड़े चुनते चुनते
सोचा करती  शायद फिर  से कल लहराये खुली हवा में
चित्र विगत की परछाई का नही उतरता दीवारों से
अटका रहता ध्यान उसी में धूमिल रेखाओं को थामे

तोड़ दम गिरी आशाओ को करता  नही कोई सम्मानित 
बुझने लगती सकल अपेक्षा ज्यो ज्यो होती जाती शाम 

हो अधीर अकुलाहट बढ़ती जाती दिन के चढ़ते चढ़ते
लेकिन चाहत के ख़ाकों में रंग नहीं भर पाता कोई 
चाहत तो बढ़ती है पर क्या चाहत है ये समझ न आता
बनती हुई रूपरेखाएँ रह जाती है ख़ुद में खोई 

कटते जाते जीवन के पल हर दिन ऐसे ही गुमनाम
और निराशा गहराती है ज्यों ज्यों होती जाती शाम 

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