पीड़ा की मदिरा भर देती

सुधा बिन्दु की अभिलाषायें लेकर आंजुर जब फ़ैले
पीड़ा की मदिरा भर देती तब तब सुधियों की साकी


जीवन नहीं नियोजित होता किसी गीत के छन्दों सा
बिखरावा इतना है जितना आता नहीं सिमटने में
चढ़ते दिन की सीढ़ी पर यूँ जमीं काई की परतें हैं
संध्या तक पल बीतें रह रह गिरने और संभलने में


उत्सुक नजरों के प्यालों को लेकर प्रश्न खड़े रहते
उत्तर की भिक्षा देने को, नहीं कोष में कुछ बाकी


घुल जाते हैं रंग भोर के संध्या के अस्ताचल में
पिघली हुई रात बह बह कर दोपहरी तक आ जाती
जली धूप के उठे धुंये में रेखाचित्रों के जैसी
जो भी आकॄति बनती, पल के अंशों में ही खो जाती

मार्गचिह्न का लिये सहारा खड़े रह गये पांवों को
डगर दिखा करती है केवल कांटो वाली विपदा की


अम्बर की खिड़की से झांका करता है एकाकीपन
देहलीजों के दीपक थक कर सो जाते राहें तकते
पीते टपकी हुई चाँदनी, पर रहते प्यासे तारे
फूल ढूँढ़ते ओस कणों को जगी भोर के सँग झरते


मछुआरा हो समय समेटे फ़ैंका हुआ जाल अपना
पर मरीचिका हो रह जाती नयनों की हर इक झांकी

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सौन्दर्य छिटकाती कविता।

Satish Saxena said...

"संध्या तक पल बीतें रह रह गिरने और संभलने में"


मार्मिक ...किसी की पीड़ा को गैर क्यों समझे ? शुभकामनायें !!

Udan Tashtari said...

मछुआरा हो समय समेटे फ़ैंका हुआ जाल अपना
पर मरीचिका हो रह जाती नयनों की हर इक झांकी

-अति उत्तम....

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