गीत गाता रहा

कोई बैठा हुआ सांझ के खेत में
ढल रही धूप के तार को छेड़ते
चंग टूटा हुआ इक बजाता रहा
गीत गाता रहा
 
दूर  चौपाल ने कितनी आवाज़ दीं
फूल पगडंडियाँ थीं बिछाती रहीं
जेहरों पे रखीं पनघटों की भरी
कलसियां थीं निमंत्रण सजाती रहीं
किन्तु अपनी किसी एक धुन में मगन
आँख में आँज कर कुछ अदेखे सपन
नींद की सेज पर सलवटों को मिटा
चान्दनी, चाँदनी की बिछाता रहा
गीत गाता रहा
 
स्वर्णमय आस ले झिलमिलाते रहे
पास अपने सितारे बुलाते रहे
तीर मंदाकिनी के सँवरते हुए
रास की भूमिकायें बनाते रहे
चाँद का चित्र आकाश में ढूँढ़ता
काजरी रात का रंग ले पूरता
दूर बिखरे क्षितिज की वो दहलीज पर
अल्पनायें नयी कुछ सजाता रहा
गीत गाता रहा
 
पास पाथेय सब शेष चुकने लगा
नीड़ आ पंथ पर आप झुकने लगा
शेष गतियाँ हुईं वृक्ष की छाँह में
एक आभास निस्तब्ध उगने लगा
संग चरवाहियों के चला वो नहीं
भ्रम के भ्रम से कभी भी छला वो नहीं
शाख पर कंठ की रागिनी के, बिठा
शब्द को वे हिडोले झुलाता रहा
गीत गाता रहा

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

गीत मधुर बजता ही रहे,
शब्दो सुखद सजता ही रहे।

Shardula said...

गुरुजी,
आज के पावन दिवस पे आपको सादर प्रणाम!
आपके गाते जा रहे हैं और हम सुनते जा रहे हैं!
ये क्रम यूँ ही अनवरत चलता रहे!

Udan Tashtari said...

चंग टूटा हुआ इक बजाता रहा
गीत गाता रहा



बेहतरीन...दिवस विशेष पर नमन!!

Shardula said...

शायद आपको बोला हो पहले भी या शायद नहीं, जब भी इस गीत को गाती हूँ तो लगता है पाउलो कोएलो की 'द एल्केमिस्ट' किताब का थीम सोंग है ये... सब कुछ चलचित्र सा दीखता है मुझे!
सादर प्रणाम!

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