पत्थरों के देवता पे कुछ असर हुआ नहीं

अर्चना के दीप नित्य अनगिनत जलाए थे
प्रार्थना के गीत  भोर सांझ   गुनगुनाये थे
शीश टेकते रहे थे चौखटों पे भोर सांझ
भक्ति में डुबो के फूल पांव पर चढ़ाए थे
पत्थरों के देवता पे कुछ असर हुआ नहीं
हम जहां थे बस वहीं अड़े हुए ही रह गए

अंत हो सका नहीं है रक्तबीज आस का
छिन्न हो गया अभेद्य जो कवच था पास का
वक्त हो पुरंदरी खडा हुआ आ द्वार पर
कुण्डलों को साध के वो ले गया उतार कर
लेन देन का हिसाब इस तरह हुआ कि हम
दान तो दिये परन्तु हो ऋणी ही रह गये

ढूँढ़ते जिसे रहे हथेलियों की रेख में
वो छुपा हुआ रहा सदा ही छद्म वेश में
हम नजर के आवरण को तोड़ पर सके नहीं
अपने खींचे दायरों को छोड़ पर सके नहीं
दिवासपन मरीचिकाओं से बने थे सामने
एक बार फिर उलझ के हम वहीं ही रह गए

प्रश्न थे हजार पर न उत्तरों की माल थी
ज़िंदगी से जो मिली, वो इस तरह किताब थी
हल किये सवाल किन्तु ये पता नहीं चला
कौन सा सही रहा, है कौन सा गलत रहा
जांचकर्ता मौन ओढ़ कर अजाने ही रहे
अर्थ कोशिशों के घोष्य बिन हुए ही रह गए

6 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

अहा, आनन्ददायी प्रवाह।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...





ब्लॉग जगत के समर्थ गीत शिरोमणि
आदरणीय राकेश खंडेलवाल जी
सादर प्रणाम !

जब भी आपके गीत पढ़े हैं , मन आह्लाद से भर जाता है …
अंत हो सका नहीं है रक्तबीज आस का
छिन्न हो गया अभेद्य जो कवच था पास का
वक्त हो पुरंदरी खडा हुआ आ द्वार पर
कुण्डलों को साध के वो ले गया उतार कर
लेन देन का हिसाब इस तरह हुआ कि हम
दान तो दिये परन्तु हो ऋणी ही रह गये

… और यह आह्लाद गीत के शिल्प और बुनगट को महसूस करके और बढ़ जाता है , भाव -रस चाहे शृंगार प्रधान हों , कारुण्य लिए हों ।

पुनः कोटि नमन !
बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार

Shardula said...

गुरुजी, अतिसुन्दर! --- शिष्य हूँ, वह भी अयोग्य, किस मुँह से प्रशंसा करुँ !
कर्ण के सन्दर्भ को यूँ कुशलता से पिरोया है आपने इस गीत में कि मन मुग्ध हुआ जाता है...

छिन्न हो गया अभेद्य जो कवच था पास का
वक्त हो पुरंदरी खडा हुआ आ द्वार पर
कुण्डलों को साध के वो ले गया उतार कर
लेन देन का हिसाब इस तरह हुआ कि हम
दान तो दिये परन्तु हो ऋणी ही रह गये
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ढूँढ़ते जिसे रहे हथेलियों की रेख में
वो छुपा हुआ रहा सदा ही छद्म वेश में
हम नजर के आवरण को तोड़ पर सके नहीं
- इस बंद का शब्दार्थ तो आसान है, पर आप लिखते समय क्या सोच रहे थे ये कहें, ख़ास कर छद्म वेश वाली बात ... आप यहाँ परमेश्वर, मनवांछित या माया किस की बात कर रहे हैं?
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हल किये सवाल किन्तु ये पता नहीं चला
कौन सा सही रहा, है कौन सा गलत रहा
जांचकर्ता मौन ओढ़ कर अजाने ही रहे
अर्थ कोशिशों के घोष्य बिन हुए ही रह गए
ये भी बहुत सुन्दर:
... तो गुरुजी अब आप शिष्यों के गीत जांच रहे हैं ये मान के चलूँ और कुछ लिखूँ :)
सादर :)

Udan Tashtari said...

पत्थरों के देवता पे कुछ असर हुआ नहीं
हम जहां थे बस वहीं अड़े हुए ही रह गए


-मन आनन्दित हुआ प्रभु..वाह!!

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

पत्थरों के देवता पे कुछ असर हुआ नहीं
हम जहां थे बस वहीं अड़े हुए ही रह गए...

बहुत सुन्दर गीत आद. राकेश जी...
सादर बधाई स्वीकारें....

Rakesh Kumar said...

बहुत सुन्दर लिखते हैं,आप.
पढकर आनन्दित हो गया है मन.

बहुत बहुत आभार आपका.

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