तीन देवों का आशीष तीनों दशक
हर दिवस था सुधा से भरा इक चषक
हर निशा स्वप्न के पुष्प की क्यारियाँ
भोर निर्झर घने रश्मियों के अथक
आज इस मोड़ पर याद आने लगे
और पल झूम कर गुनगुनाने लगे
दीप के साथ जलती अगरबत्तियां
धूप,तुलसी प्रसादी कलश नीर के
क्षीर का सिन्धु,गोकुल दधी के कलश
पात्र छलके हुए पूनमी खीर के
चन्दनी शीत मं घुल हिनाई महक
केवड़ों में भिगोते हुए वेणियाँ
कामनाओं की महकी हुई रागिनी
मंत्र पूरित स्वरों की पकड़ उंगलियाँ
आज जैसे विगत छोड़ आये निकट
और फिर बांसुरी सी बजाने लगे
दोपहर ला खिलाती रही पंथ में
फूल गमलों में बो सुरमई सांझ के
सांझ ने ओढ़नी पर निशा की रखे
चिह्न दीपित हुये एक विश्वास के
मानसी भावना ताजमहक्ली हुई
धार रंगती रही नित्य परछाईयाँ
सांस की रागिनी प्रीत की तान पर
छेड़ती थी धुनें लेके शहनाईयां
दृश्य वे सब लिये हाथ में कूचियाँ
चित्र फिर कुछ नये आ बनाने लगे
एक आवारगी को दिशा सौंप कर
वाटिकायें डगर में संवरती रहीं
ध्येय की फूलमालाओं को गूँथती
भोर अंगनाई में आ विचरती रही
पल के अहसास की अजनबी डोर ने
नाम अपने लिये इक स्वयं चुन लिया
थे बिखरते रहे झालरी से फिसल
भाव ,मन ने उन्हें सूत्र में बुन लिया
दृष्टि के दायरे और विस्तृत हुये
व्योम के पार जा झिलमिलाने लगे
वीथियाँ पग जिन्हें चूमते आ रहे
कुछ परे गंध से,कुछ रहीं मलयजी
कुछ विजन की दुशाला लपेटे हुये
और कुछ थीं रहीं वाटिका सी सजी
पल कभी साथ में होके बोझिल रहे
वक्त जिनमें रहा होके फ़ौलाद सा
और कुछ थे पखेरू बने उड़ गये
एक भी हाथ अपने नहीं आ सका
देख कर सारिणी में अपेक्षा सजी
प्राप्ति के पल सभी मुस्कुराने लगे
सांझ के रथ चढ़ा नीड़ जाता हुआ
कह रहा है दिवाकर सजाओ सपन
जो चला पोटली को उठा कर विगत
सौंप दो तुम उसे संचयित सब थकन
शब्द जो थे जगे अग्नि के साथ में
आहुती दे उन्हें प्रज्ज्वलित फ़िर करो
शेष जो आगतों के परस में छिपा
साथ भुजपाश में उसको मिल के भरो
प्रीत के भाव उल्लास से भर गये
नूपुरों की तरह झनझनाने लगे
4 comments:
अनुपम सौन्दर्य समाहित है, इन पंक्तियों में।
"एक मधु है, चाँद दूजा, ज़िन्दगी मधुश्रावणी है
नेह के इस स्पर्श से ही, नित नयी कविता बनी है"
अभिनन्दन उनको दिवस का, मिलन हो सुख और सुयश का!
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परम आदरणीय गुरुजी, आप दोनों को इस शुभ-दिवस के तीसवें वर्षगाँठ की अशेष शुभकामनाएं, प्रणाम, बधाई और ... मिठाई की गुहार !!
सादर... हम सब :)
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वाह! क्या लिखा है आपने!
एक आवारगी को दिशा सौंप कर
वाटिकायें डगर में संवरती रहीं
पल के अहसास की अजनबी डोर ने
नाम अपने लिये इक स्वयं चुन लिया
वीथियाँ पग जिन्हें चूमते आ रहे
कुछ परे गंध से,कुछ रहीं मलयजी
देख कर सारिणी में अपेक्षा सजी
प्राप्ति के पल सभी मुस्कुराने लगे
सांझ के रथ चढ़ा नीड़ जाता हुआ
कह रहा है दिवाकर सजाओ सपन
जो चला पोटली को उठा कर विगत
सौंप दो तुम उसे संचयित सब थकन
शेष जो आगतों के परस में छिपा
साथ भुजपाश में उसको मिल के भरो
अतिसुन्दर !अतिसुन्दर !
आमीन !
अद्भुत- डूब गये!!
गीत की महक को महसूस कर रहा हूँ राकेश भाई !
आभार सुगंध फैलाने को !
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