नैन के गांव की राह भूले हुए
इक अधूरे सपन की कहानी सुनें
तार के कंपनों में छुपी जो व्यथा
आओ वह सरगमों की जुबानी सुनें
सामने जो रहा सब ही देखा किये
पार्श्व में अर्थ लेकिन छुपे रह गये
कोई नेपथ्य में झांकने न गया
मंच की होड़ करते हुए रह गये
डोरियां खींचते थक गईं उंगलियों
की कहानी किसी को पता न चले
कुमकुमे रोशनी के इसी ताड़ में
अपनी परछाईयों से गये थे छले
फ़ड़फ़ड़ाते हुए पृष्ठ जो कह रहे
सार उसमें निहित जो रहा वह गुनें
शब्द जो थे नहीं होंठ को छू सके
एक भीगी पलक ने कहे वे सभी
कल न पहचान पाई नजर थी जिन्हें
अजनबी रह गये वे सभी आज भी
दॄष्टि के जो न विस्तार में आ सके
पीर के वे निमिष और बोझिल हुए
एक ही बात की रट लगाये हुए
बस मचलते रहे धड़कनों के सुए
सांस की बांसुरी ने पुन: टेर दीं
राग विरहा में डूबी हुई कुछ धुने
चिह्न तो उद्गमों के डगर पी गई
और गंतव्य का कुछ पता न चला
दूरियाँ जितनी तय पांव करते रहे
उतना बढ़ता रहा बीच का फ़ासला
एक ही वृत्त में हर दिशा घुल गई
नीड़ पाथेय सब एक हो रह गये
छोर इस पंथ का है कहीं भी नहीं
माप गति के, ठिठकते हुए कह गये
धूप से धुल, हुई छार ओढ़ी हुई
याद की चादरें कुछ नई अब बुनें
जो पटों पे थे वातायनों के टँगे
चित्र कल तक, नहीं एक अब पास है
रात कंदील जिनकों सुनाती रही
उन कथाओं से अनभिज्ञ इतिहास है
आगतों के लिये दीप बाले कोई
आस रूठी हुई थी मना कर गई
मौन प्रश्नों को लुढ़का गई आस्था
बिन कहे कुछ उठी फिर चली घर गई
आओ कुछ यूँ करें पायलें आस की
छेड़ दें आस्था की नई रुनझनें
इक अधूरे सपन की कहानी सुनें
तार के कंपनों में छुपी जो व्यथा
आओ वह सरगमों की जुबानी सुनें
सामने जो रहा सब ही देखा किये
पार्श्व में अर्थ लेकिन छुपे रह गये
कोई नेपथ्य में झांकने न गया
मंच की होड़ करते हुए रह गये
डोरियां खींचते थक गईं उंगलियों
की कहानी किसी को पता न चले
कुमकुमे रोशनी के इसी ताड़ में
अपनी परछाईयों से गये थे छले
फ़ड़फ़ड़ाते हुए पृष्ठ जो कह रहे
सार उसमें निहित जो रहा वह गुनें
शब्द जो थे नहीं होंठ को छू सके
एक भीगी पलक ने कहे वे सभी
कल न पहचान पाई नजर थी जिन्हें
अजनबी रह गये वे सभी आज भी
दॄष्टि के जो न विस्तार में आ सके
पीर के वे निमिष और बोझिल हुए
एक ही बात की रट लगाये हुए
बस मचलते रहे धड़कनों के सुए
सांस की बांसुरी ने पुन: टेर दीं
राग विरहा में डूबी हुई कुछ धुने
चिह्न तो उद्गमों के डगर पी गई
और गंतव्य का कुछ पता न चला
दूरियाँ जितनी तय पांव करते रहे
उतना बढ़ता रहा बीच का फ़ासला
एक ही वृत्त में हर दिशा घुल गई
नीड़ पाथेय सब एक हो रह गये
छोर इस पंथ का है कहीं भी नहीं
माप गति के, ठिठकते हुए कह गये
धूप से धुल, हुई छार ओढ़ी हुई
याद की चादरें कुछ नई अब बुनें
जो पटों पे थे वातायनों के टँगे
चित्र कल तक, नहीं एक अब पास है
रात कंदील जिनकों सुनाती रही
उन कथाओं से अनभिज्ञ इतिहास है
आगतों के लिये दीप बाले कोई
आस रूठी हुई थी मना कर गई
मौन प्रश्नों को लुढ़का गई आस्था
बिन कहे कुछ उठी फिर चली घर गई
आओ कुछ यूँ करें पायलें आस की
छेड़ दें आस्था की नई रुनझनें
5 comments:
पार्श्व में छिपा है प्रत्यक्ष से भी गूढ़ भाव। बहुत सुन्दर कविता।
बहुत भाव पूर्ण गीत
बिन कहे कुछ उठी फिर चली घर गई
Since last two days, I am stuck on this line...it is so beautiful!!
Whole poem is quite dynamic...as if thoughts, emotions... hope and despair all are caught in a whirlwind.
बेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - ठन-ठन गोपाल - क्या हमारे सांसद इतने गरीब हैं - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
अद्वितीय वाह....
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