तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा था

जो छू गया हाथ की मेरे रेखायें
तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा थ
सजने लगा धनक के रंगों में सहसा
मेरा भाग्य,लगा जो मुझको रूठा था

फूटे मरुथल में शीतल जल के झरने
बौर नयी लेकर गदराई अमराई
करने लगे मधुप कलियों से कुछ बातें
लगी छेड़ने हवा प्रीत की शहनाई
मार्गशीर्ष ने फ़ागुन सा श्रंगार किया
लगा ओढ़ने पौष चूनरी बासन्ती
पथ की धूल हुई कुछ उजरी उजरी सी
खिलने लगी पगों में आकर जयवन्ती

फिर से प्राप्त हुये पल वे आनन्दित सब
जिनसे साथ मुझे लगता था छूटा था
जो छू गया हाथ की मेरे रेखायें
तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा था

लगे संवरने आंखों में आ आकर के
सपने रत्नजड़ित नूतन अभिलाषा के
मथने लगे ह्रदय को पल अधीर होकर
आगत क प्रति आकुल सी जिज्ञासा के
फ़लादेश के शुभ लक्षण खुद ही लिख ्कर
और संवरने हेतु लगे खुद ही मिटने
मक्षत्रों से बरसे हुए सुधा कण से
लगी भोर के सँग संध्यायें भी सिंचने

बसा हुआ है मेरी खुली हथेली पर
वह अनुभूत परस अनमोल अनूठ था
जो छू गया हाथ की मेरे रेखाये
तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा था

चार दिशा से चली हवायें मनभावन
पारिजात के फूलों से महका आँगन
जल से भरे कलश द्वारे पर ला ला कर
रखने लगी स्वयं सारी नदियाँ पावन
आरतियों के बोल देह धर कर आये
दहलीजों ने रंगी स्वयं ही रांगोली
वन्दनवारों से बातें कर हल्दी ने
सिन्दूरी कर दी फिर सपनों की डोली

बिल्लौरी हो गया सामने आकर वह
एक अपेक्षा का शीशा जो टुटा था
जो छू गया हाथ की मेरे रेखाय
तेरे हाथों की मेंहदी का बूटा था

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

सौन्दर्य छटा बिखेरती पंक्तियाँ।

विनोद कुमार पांडेय said...

फूटे मरुथल में शीतल जल के झरने
बौर नयी लेकर गदराई अमराई
करने लगे मधुप कलियों से कुछ बातें
लगी छेड़ने हवा प्रीत की शहनाई

मैं बार बार इसी सोच में पड़ जाता हूँ...इतने बेहतरीन शब्द का भंडार आप ने कैसे संचित किया..निश्चित रूप से माँ सरस्वती की बहुत बड़ी कृपा है आप पर...सुंदर शब्द और उससे निर्मित एक बेहतरीन गीत...धन्यवाद राकेश जी

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