लेखनी प्रेरणा ढूँढ़ते थक गई
कोई हो भाव जो उसको आकर छुए
वो विरह की अगन, जलता सावन,कसक
और पथ पर भटकते नयन क्या हुए ?
रोता कासिद गई हाथ से नौकरी
काम ईमेल से चल रहा आजकल
कोई संदेस बन्धता गले में नहीं
इसलिये हो रहा है कबूतर विकल
अब पड़ौसी के बच्चों को मिलती नहीं
टाफियां, या मिठाई या सिक्का कोई
सिर्फ़ आईएम पर और मोबाईल पर
इन दिनों है मोहब्बत जवां हो रही
दूरियां मिट गईं,कैमरे लग गये
जाल पर, रूबरू आज प्रीतम हुए
याद, बेचैन है कसमसाती हुई
कोई मिलता नहीं, जिसके दिल को छुए
हो गईं अजनबी, " मेरे प्यारे वतन
तुझपे कुर्बान दिल," की सभी रागिनी
एक परवाज़ के हाथ पर है वतन
जा छुआ, कामनायें जरा जो बनी
दूर के रिश्ते-सन्देश थे मौसमी
फोने की घंटियों से बन्धे हैं हुए
एक पल को कभी जिनसे परिचय हुआ
वे सभी दो पलों में पड़ौसी हुए
कोई अनजान अब है नहीं गांव का
खेत खलिहान,चौपाल,पनघट,कुंए
चित्र सारे ही उपलब्ध हैं जाल पर
अब तरसता न खिलजी, दिखे पद्मिनी
कैस लैला की खातिर गया चैट पर
साथ उसको मिलीं हीर और सोहनी
लाग करता जगन्नाथ, पर पूर्व ही
सामने आ लवंगी खड़ी हो गई
जुगनुओं की चमक नेट पर जो चढ़ी
झिलमिलाती हुई फुलझड़ी हो गई
जो भी है सब सिमट जाल पर रह गया
स्वप्न भी आँख में अब न बनते मुए
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12 comments:
जाल से आये परिवर्तन का बहुत सजीव चित्रण किया है, राकेश भाई.
जाल पर ही मिलती हैं गलियां कहीं
जानें किस तरह रिश्ते भी बनते यहीं
एक मधुबन सा बनकर संवरने लगा
फूल तो यहां बहुत,पर महकते नहीं.
मजा आ गया.
बहुत खूब! आप पनघट से नेट पर आ रहे हैं. बढि़या लगा.
वाह वाह , बहुत बढिया
प्रत्यक्षाजी,अनूपजी तथा समीरजी
आपकी सोहबतों का असर ही तो है, जो कि पनघट से लाया मुझे नैट पर
आपसे सीख तकनीकियां, मिल गया यों ही गाहे बगाहे कभी चैट पर
और सीखूंगा तो और आयाम भी लेखनी को सुनिश्चित मिलेंगे नये
बैलगाड़ी में बैठी हुई थी कलम, आप सब ने बिठाया उसे जैट पर
वाह !
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