दीवाली-एक और नजर

रोशनी ओढ़ कर आई है ये अमा
आओ दीपक जला कर करें आरती
साथ अपने लिये, विष्णु की ये प्रिया
कंगनों और नूपुर को झंकारती

आहुति तम की दे सांझ के यज्ञ में
आई पहने हुए पूर्णिमा की छटा
बन पुरोहित करे मंत्र उच्चार भी
अपने स्वर में पटाखों के स्वर को सजा
दॄष्टि के पुंज की बन चमक, फुलझड़ी
की चमक में सिमट कर बिखरती हुई
अपने आंचल को लहरा, बहारें लुटा
मन में उल्लास बन कर संवरती हुई

आओ पूजा की थाली सजायें चलो
साथ, वीणा लिये हाथ में भारती

साथ में ॠद्धि-सिद्धि प्रदायक हुए
आज बदले है अपना जो ये आचरण
नव-निधि आज करने लगी बेझिझक
कार्तिकी इस अमा का सहज ही वरण
धान्य, समॄद्धियों का कमर पर कलश
है लिये पांव आँगन में धरती हुई
खील सी खिलखिलाहट को मधुपर्क में
घोल, मधुरिम उमंगों में झरती हुई

एक अनुराग को, अपने अस्तित्वे की
पूर्ण एकादशी को रही वारती

गेरू, चावल पिसे, और आटा लिये
कक्ष में भित्तिचित्रों को आओ रँगें
कंठ की वाणियां आज की रात से
एक मिष्ठान सी चाशनी में पगें
हर दिशा ने कलेवर नया कर लिया
आओ हम भी नये आज संकल्प लें
जैसे बदली अमा बन के दीपावली
हम भी बदलें न सोचा हो ज्यों गल्प ने

धड़कनों के सफ़र में खिलें हम सभी
पंथ की धूल में बन के मधुमालती
और फिर ये अमा, बन महाकालिका
हो व्यथाओं को पल पल पे संहारती

2 comments:

Anonymous said...

दीपोत्‍सव दीपावली आपके जीवन को सदस प्रकाशित करे। दीपावली की शुभकामनाये

Anonymous said...

रोशनी ओढ़ कर आई है ये अमा
आओ दीपक जला कर करें आरती
साथ अपने लिये, विष्णु की ये प्रिया
कंगनों और नूपुर को झंकारती

मधुर ध्वनियों से झंकृत दीपावली वधू के रूप में हमारे सामने खडी़ हो ऐसा प्रतीत हो रहा है आपकी रचना पढकर।

बधाई.

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