टँगे हुए जो चित्र याद के चन्द्रमहल की दीवारों पर
उन सब में जो अंकित है, वह प्राणप्रिये है छवि तुम्हारी
भित्तिचित्र हों या हो दर्पण, या देहरी पर रँगी अल्पना
पुरा चौक हो मंगल दिन का,या रँगती हो द्वार कल्पना
शंख, सीपियाँ, गेरू ,आटा, मेंहदी,कुमकुम, अक्षत, रोली
सबही से परिलक्षित होती, तुम्हें बिठा कर लाई डोली
अँगनाई से कंगूरों तक,जहां तुम्हारा परस हुआ है
हर उस कोने से उठती है गंध, रूपिणी अभी तुम्हारी
अगरबत्तियों का लहराता धुआँ, दीप की जलती बाती
मीत ! प्रार्थना के हर क्षण में चित्र तुम्हारा है बन जाती
आरति की घंटी के स्वर में, उपजा है स्वर प्रिये तुम्हारा
वही तुम्हारा नाम हो गया, जब भी मंत्र कोई उच्चारा
मन साधक की, आराधक की, जो भी है आराध्य साध्य वह
हर प्रतिमा पर, गौर किया तो पाया हैं वे सभी तुम्हारी
जागी हुई नींद के क्षण में, दिन के स्वप्निल सम्बन्धों में
एक गंध है, एक रंग है, एक ध्येय सब अनुबन्धों में
एक तुम्हारी महक रखे जो मेरी सांसों को महकाकर
एक रूप है जो रखता है, अधरों पर गीतों को लाकर
कला बोध से शब्द शिल्प तक, सुर सरगम की तुम्ही प्रणेता
शतरूपे ! इन सब से होंगी विलग न स्मॄतियाँ कभी तुम्हारी
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1 comment:
राकेश जी बहुत भाग्यवान हैं वो सब कुछ ही हैं वो । बहुत सुन्दर नहीं सुन्दर से भी सुन्दरः
डॉ० भावना
मन साधक की, आराधक की, जो भी है आराध्य साध्य वह
हर प्रतिमा पर, गौर किया तो पाया हैं वे सभी तुम्हारी
कला बोध से शब्द शिल्प तक, सुर सरगम की तुम्ही प्रणेता
शतरूपे ! इन सब से होंगी विलग न स्मॄतियाँ कभी तुम्हारी
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