फागुन को गुजरे दिन बीते, बरखा ॠतु भी दिखती जाती
मैने भेजे कई संदेसे, कविता किन्तु नहीं आ पाती
छंद बढ़ाये हाथ रह गये औ' कवित्त फैलाये बांहें
दोहों की बढ़ती व्याकुलता से सज्जित हैं सारी राहें
कुण्डलियों के स्वप्न सजाये बिना रहे नयना पथराये
और सवैये की लाचारी करती जाहिर व्यथित निगाहें
अलंकार ने उपमाओं के साथ नित्य ही भेजी पाती
मैने भी भेजे संदेसे, कविता किन्तु नहीं आ पाती
सर्ग सर्ग की दहलीजों पर रख रूपक की वन्दन्वारें
खण्डकाव्य के सन्दर्भों की आतुरतायें पंथ निहारें
महाकाव्य की गंगा के तट खड़ी लेखनी नौका बनकर
कब भावों के अवधपति आ, इस केवट के भाग्य संवारें
सरगम खड़ी थाम रागिनियां, शब्द बिना पर गा न पाती
कितने भेजे हैं संदेसे, कविता किन्तु नहीं आ पाती
गज़लें मुक्तक, नज़्म, निगाहें मुझसे बचा बचा कर गुजरे
दूर अंतरे रहे, कभी जो जोड़ लिये मैने कुछ मुखड़े
अक्षर हुए अजनबी, संचय सब, शब्दों का क्षीण हो गया
रहे पास में बिसरी हुई उक्तियों के कुछ टूटे टुकड़े
इन् पर लिखी इबारत धूमिल, कोई अर्थ नहीं दे पाती
थका बुलाते दिवस-निशा मैं, कविता किन्तु नहीं आ पाती
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2 comments:
"गज़लें मुक्तक, नज़्म, निगाहें मुझसे बचा बचा कर गुजरे
दूर अंतरे रहे, कभी जो जोड़ लिये मैने कुछ मुखड़े"
--बहुत सुंदर रचना बन गई है, राकेश भाई.
बधाई
इन् पर लिखी इबारत धूमिल, कोई अर्थ नहीं दे पाती
थका बुलाते दिवस-निशा मैं, कविता किन्तु नहीं आ पाती
कोई नही समझ पाता कवि की भावना ? बधाई !
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