है विदित मुझको कि पथ पर प्रीत के मैं चल न पाया
पा रहा हूँ किसलिये फिर नाम अपना दोषियों में
शब्द जिन अनुभूतियों को कर नहीं अभिव्यक्त पाया
भावना के सिन्धु में फिर से उन्ही का ज्वार आया
लड़खड़ा कर रह गये अक्षर सभी उस व्याकरण के
आपकी अभ्यर्थना करते हुए जिसको सजाया
और अब असमंजसों की ओढ़ कर काली दुशाला
घिर गया हूँ मैं यहाँ बढ़ती हुई खामोशियों में
धड़कनों में नाम बो कर साधना की लौ जलाई
साँस की सरगम सलौनी रागिनी में गुनगुनाई
वर्जना की पालकी में बैठती सारंगियों को
नाद के संदेश पत्रों की शपथ फिर से दिलाई
बोध के सम्बोधनों को, कंठ स्वर जो नाम दे दे
ढूँढ़ता हूँ मिल सके सहमी हुई सरगोशियों में
हाँ चला हूँ राह को पुष्पित किये मैं रात वासर
शाख पर बैठी कली को, गीत नदिया के सुनाकर
पर्बतों के गांव से लौटी हुई पुरबाईयों को
बाँधता हूँ ओढ़नी के घुंघरुओं में गुनगुनाकर
तीर पर वाराणसी में, दे रहा आवाज़ उसको
वह अवध की शाम, जिसको खो चुका मयनोशियों में
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
नव वर्ष २०२४
नववर्ष 2024 दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...
-
प्यार के गीतों को सोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये कचनारों के फूलों पर भी च...
-
हमने सिन्दूर में पत्थरों को रँगा मान्यता दी बिठा बरगदों के तले भोर, अभिषेक किरणों से करते रहे घी के दीपक रखे रोज संध्या ढले धूप अगरू की खुशब...
-
जाते जाते सितम्बर ने ठिठक कर पीछे मुड़ कर देखा और हौले से मुस्कुराया. मेरी दृष्टि में घुले हुये प्रश्नों को देख कर वह फिर से मुस्कुरा दिया ...
2 comments:
राकेश भाई, पुनः एक सुंदर रचना के लिये बधाई:
"बेजुबानी की जुबां को,हर तरफ मैं खोजता हूँ
भूल बैठा, खेलती वो मैकदे की मदहोशियों में"
--समीर लाल
राकेश जी,
सुन्दर भावनायें और बड़ी सुन्दरता से सटीक शब्दों में गूथी गयी हैं।
सुन्दर !!
Post a Comment