गिरिश्रृंगों से गुलशन तक ने शब्दो का श्रृंगार किया है
मेरा यायावर मन शब्दों की इक आंजुर भरने को भटका
भावो के पाखी तो आतुर है, विस्तार गगन का नापे
शब्द नही है तो उडॉन भी आभिव्यक्ति की नही मिल सकी
मन की क्यारी तो उर्वर है, बोये हुए बीज भी अनगिन
शब्द बिना न हुआ अंकुरण और न कोई कली खिल सजी
जीवन की नदियां के तट पर मरुथलसा वीरान बिछा है
आस सुलगती है सिरजन हो शब्दो वाले वंशीवट का
झोली में हैं सिर्फ़ मात्रा, रही अधूरी अक्षर बिन जो
जुड़ न पाई इक दूजे से और नहीं इक शब्द बन सका
दरवेशी पग रहे घूमते पर्वत, घाटी, चौपालों पर
एक फूल शब्दों का कोई अंजलियों में नहीं रख सका
आशा, रखे शब्द की कलसी कोई अनुभूति के जेहर
तो कुछ अर्थ समझ पायेगा भावों के रीते पनघट का
कभी मचलते, कभी सँवरते, कभी बिखरते सुनते आये
कभी मुस्कुराते अधरों पर, शामाते हैं कभी नयन में
इस मन ने यह इतिहासों की किवदन्ती कह कर स्वीकारा
नहीं हुये अनुभूत इस तरह, नहीं जाग में नहीं शयन मेंण
जिस जिस का अधिकार शब्द पर, लिखते रहा गीत या गज़लें
मुझसे रहे अपरिचित, सिरजन शेष नहीं मेरे भी बस का
2 comments:
जय हो ...
वाह
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