कांपती सी हवा है नगर में एक निस्तब्धता छा रही है
शाख पर एक कोयल उदासी ओढ़ करके ग़ज़ल
गा
रही है
सारे आयोजनों की घटाए, हो चुकी खर्च
अब तो
बरस के
शेष है रिक्त ही कुर्सियां
बस
कोई आता नही है पलट के
शून्यता मंच पर आ उतर के अपना अभिनय किये जा रही है
राजनीति के वादों सरीखे पांव नित राह पर चल रहे हैं
सूर्य भी आलसी हो गया है दोपहर में दिवस ढल रहे हैं
खोखली
एक
प्रतिध्वनि
निरंतर
लौट
नभ से चली आ रही है
होंठ हर एक सहमा सा चुप है, दोष जैसे किसी ने लगाया
घोल सन्नाटा ही आहटों में ,मुंह चिढ़ाते समय मुस्कुराया
और नाकारियात पाँव फैला, लेती जम्हाई मुंह बा रही है
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सारे आयोजनों की घटाए, हो चुकी खर्च अब तो बरस के
शेष है रिक्त ही कुर्सियां बस कोई आता नही है पलट के
शून्यता मंच पर आ उतर के अपना अभिनय किये जा रही है
-sateek!
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