दृष्टियों में बिम्ब भर कर
हम खड़े उस मोड़ पर ही
तुम जहां पर एक दिन
भुजपाश में आ बंध गए थे
उस जगह परछाइयों के
फूल अब भी मुस्कुराते
एक पल में ही न जाने
वर्ष कितने बीत जाते
जागती
है भोर अपनी
सांस में गंधें संजो कर
दिन सुबह से सांझ तक
बस इंद्रधनुषों को बनाते
चौखटों के शीर्ष पर तोरण
बने सजते निमिष वे
दृष्टियों की साधना में
जीतते तुम रह गए थे
दृष्टियों में भर गए है
बिम्ब कुछ आकर स्वयं ही
जब मेरा सानिध्य पाकर
दृष्टि बोझिल हो गई थी
उंगलियों ने चुनरी के
छोर को आयाम सौंपे
और पगनख से धरा पर
आकृतियां बन गई थी
कैनवस पर आ क्षितिज के
हो रहे जीवंत क्षण वो
जब दिशाओ के झरोखे
लाज रंजित हो गए थे
दृष्टियों में बिम्ब भरने
लग गए हैं आज फिर से
होंठ की पाँखुर कँपी थी
चांदनी में भीग कर के
उड़ गया मन, स्यंदनों के
पंख पर चढ़ कर गगन में
पंथ अन्वेषित हुए थे
दो कदम ही साथ चलते
दृष्टियों में हो रहा इतिहास
फिर से आज बिम्बित
प्रीत के किस्से जहां पर
स्वर्ण में मढ़ जड़ गए थे
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