लेखनी गुम सुम हुए हैं मौन मन के भाव सारे
सिर्फ़ सूनापन मुझे जो छोड़ कर जाता नहीं है
जानता हूँ लौट आयेंगी भटक कर अब निगाहें
और स्वर वह एक आयेगा नहीं उड़ कर हवा में
पंथ सुनने को तरसते ही रहेंगे चाप पग की
शेष स्मॄति में नाम होगा, भोर में संध्या निशा में
ज़िन्दगी का सत्य कटु है, जानत हूँ किन्तु पागल
है हठी मन, जो इसे स्वीकार कर पाता नहीं है
भोर में किरणें वही इक चित्र रँग देती क्षितिज पर
और कागज़ पर वही इक नाम रह रह कर उभरता
एक यह अहसास कोई हाथ काँधे पर रखे है
और बैठा सामने है मुस्कुराता बात करता
है विदित अनुभूति है यह सिर्फ़ मेरी कल्पना की
किन्तु छाई धुंध को मन काट यह पाता नहीं है
शब्द बेमानी लगा अब अर्थ सारे खो चुके हैं
रुद्ध स्वर आकर अधर पर थरथरात कापता है
चेतना दोहरा रही है ज्ञान गीता का निरन्तर
भाव में लिपटा हुअ कोमल ह्रदय कब मानता है
ज्ञात मुझको बात मन की हो प्रकाशित, है असंभव
और मुखरित गीत भी अब कोई हो पाता नहीं है
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8 comments:
सच है:
ज़िन्दगी का सत्य कटु है, जानता हूँ किन्तु पागल
है हठी मन, जो इसे स्वीकार कर पाता नहीं है
--बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना.
बहुत सुंदर. मन को छू गई.
किन परिस्थितियों में लिखी गई है ये कविता मैं जानता हूं । ये पीर को प्राण देने के समान है ये प्रलय से प्रणय के समान है ।
पंथ सुनने को तरसते ही रहेंगी चाप पग की
शायद रहेंगीं की जगह पर रहेंगें होना था टंकण का दोष हो गया है ।
पुन: गीत पीर की गाथा है और कहा तो ये गया है कि हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं । आपके श्रद्धेय अग्रज को मेरी ओर से भी श्रद्धांजलि ।
राकेश जी,
बहुत ही भाव भरी विहल कर देने वाली रचना है.. सुबीर जी की टिप्पणी से इस रचना के उद्ग्म का पता चला...इस दुख की बेला मे हम आपके साथ है.
आदरणीय राकेश जी,
चेतना दोहरा रही है ज्ञान गीता का निरन्तर
भाव में लिपटा हुअ कोमल ह्रदय कब मानता है
रचना का दर्शन और मर्म दोनो ही हृदय को गहरे स्पर्श करते हैं।
***राजीव रंजन प्रसाद
kabhi kabhi koi shabd dhuundhey nahi miltey ..kuch kehney ko...bas baar baar padhii..aabhaar
man to horaha hai ki puri puri kavita sel;ect kar ke....! hriday me paste kar lu.n ek ek shabda sundar..!
"एक यह अहसास कोई हाथ काँधे पर रखे है
और बैठा सामने है मुस्कुराता बात करता"
हे राम !
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