संध्या बतियाती रजनी भी भोर तलक मुझसे
केवल एक दुपहरी से थोड़ी सी अनबन है
ओढ़े धूप, फिरा मुँह बैठी रहती नीम तले
मेरा भी अब सिर्फ़ अकेले रहने का मन है
कहने को हम हुए अकेले लेकिन कब होते
संबन्धों के जालों से कब मिलता छुटकारा
अनुबन्धों की धारायें, मन सराबोर करतीं
संकल्पों को तथाकथित सूनापन उच्चारा
वैचारिक वैतरणी में मन नौका सा डोले
स्वप्न पालकी पलकों पर आ खाती हिचकोले
सुर के बिना गूँजता मन में संध्या भोर रहा
एकाकी होने का जो भ्रम था हर बार ढहा
रह रह कर खनका करती है आँगन में आकर
स्वप्न परी की पायलिया की कोमल रुनझन है
मेरा भी कुछ देर अकेले रहने का मन है
कितना चाहा है एकाकीपन पर नहीं मिला
यादों का मौसम रहता है सदा मुझे घेरे
बादल से किरणों की होती पले पल अठखेली
चित्र बनाती रहती आकर नयन क्षितिज मेरे
घुली हवा के झोंको में सौगंधें आ आकर
फिर से जीवित कर देती हैं बीते पल कल के
बिखरे हुए प्रेमपत्रों से उमड़ उमड़ अक्षर
सुधि के प्याले में मदिरा से बार बार छलके
सारंगी पर मनुहारों को छेड़ा करता है
जेठ मास में आकर बैठा लगता सावन है
इसीलिये कुछ देर अकेले रहने का मन है
मित्र न तुमने भी तो मेरा साथ कभी छोड़ा
छाया बन कर साथ चले तुम कदम कदम मेरे
सुख की घटा गमों की बदली जब जब भी छाई
एक तुम्हारा संबल मुझको सदा रहा घेरे
पग पग पर ठोकर खा खाकर गिरे और संभले
नहीं एक पल को भी मेरा यह रिश्ता टूटा
मन में अभिलाषा अँगड़ाई लेते हुए थकी
किन्तु डोर से साथ उंगलियों का पल न छूटा
चाहत तुमसे विलग एक अनुभव का स्पर्श मिले
मन के यज्ञकुंड में आकर सुलगा चंदन है
मेरा अब कुछ देर अकेले रहने का मन है
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5 comments:
चाहत तुमसे विलग एक अनुभव का स्पर्श मिले
मन के यज्ञकुंड में आकर सुलगा चंदन है
मेरा अब कुछ देर अकेले रहने का मन है
बहुत सुंदर.
बहुत बहुत सुन्दर-अद्भुत!!!
ओढ़े धूप, फिरा मुँह बैठी रहती नीम तले
मेरा भी अब सिर्फ़ अकेले रहने का मन है
मनोभावों के आप से चितेरे दुर्लभ हैं..
***राजीव रंजन प्रसाद
संध्या बतियाती रजनी भी भोर तलक मुझसे
केवल एक दुपहरी से थोड़ी सी अनबन है
ओढ़े धूप, फिरा मुँह बैठी रहती नीम तले
मेरा भी अब सिर्फ़ अकेले रहने का मन है
bahut khoob.....sahab...bahut khoob.
bahut sundar bhaav..केवल एक दुपहरी से थोड़ी सी अनबन है
ओढ़े धूप, फिरा मुँह बैठी रहती नीम तले
ek zaraa alag si baat hai ye...
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